कर्मा महासमर - 3 | Karam mhasamer Vol-3
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15.04 MB
कुल पष्ठ :
384
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भीष्म पर टिक गयी । भीष्म मुग्ध से हुए, उसकी ओर देख रहे थे । वह पुनः बोला, “राजा,
प्रजा पर इसलिए कर लगाता है कि वह उस धन को प्रजा के कल्याण में लगाये, इसलिए नहीं
कि उससे राजा, राजवंश अथवा राजकोश समृद्ध हों । यह धन यदि हम अपनी प्रजा को दुष्रेरित
कर प्राप्त करते हैं, तो न इससे प्रजा का कल्याण है, न राज्य का और न राजा का | आर्य
कणिक ने कदाचित् इस ओर ध्यान नहीं दिया कि राजा न तो स्वार्धाध व्यापारी है और न
दस्यु--जो अपनी समृद्धि के लिए प्रजा के हितों की उपेक्षा करे । धनोपार्जन भी धर्म के माध्यम
से ही होना चाहिए । धर्म से शून्य घन केवल पाप को ही प्रोत्साहित करता है । जो पदार्थ हमारी
प्रजा के मन और आत्मा के लिए घातक है, उसका व्यापार कर हमने अपने लिए एक बड़ी
राशि प्राप्त कर भी ली, तो अंततः वह लाभदायक नहीं है । केवल धनोपार्जन की दृष्टि से सोचा
जायेगा, तो हमें दस्युओं को भी आमंत्रित करना पड़ेगा कि आओ, प्रजा को लूये और अपनी
लूट का एक-चौथाई राज्य को कर-रूप में दे दो । क्या हम चाहेंगे कि हमारे राज्य की यह _
स्थिति हो जाये ?
किंतु युवराज यह नहीं बता रहे कि राज्य की आय की यह हानि किस प्रकार पूरी
करेंगे ?” पुरोचन ने युधिष्ठिर की बात काटकर कहा ।
विदुर ने देखा : सामान्यतः राजा और युवराज की वात काटने का साहस कोई नहीं करता,
किंतु आज दुर्योधन के मित्रों को इसमें तनिक भी संकोच नहीं है'। क्या इसलिए कि राजा उन्हें
रोकंते नहीं अथवा इसलिए कि आज युधिष्ठिर के भाई इस सभा में नहीं हैं और युधिष्ठिर
अकेला पड़ गया है ?
किंतु अकेला पड़ जाने पर भी युधिष्ठिर हतप्रभ नहीं हुआ था । वह अपने पूर्ण तेज के
साथ बोला, “राज्य की आय इसलिए होती है कि उससे प्रजा का कल्याण ही सके ! यदि प्रज़ा
का कर राज्य की आय बढ़ती है, तो उससे अच्छा है कि राज्य की -आय न दढ़े ।
दूसरी वात यह है कि राजसभा ने जब भी विचार किया होगा, यही विचार किया होगा कि
* मदिरालयों और चूतगृहों से कितनी आय है । यह विचार कभी नहीं किया होगा कि उस कर
को प्राप्त करने के लिए नियुक्त किये गये राजकर्मचारियों पर कितना व्यय हो रहा है । उस सारे
व्यय को, इस आय में से निकाल दिया जाये, तो ऐसी कितनी राशि बच जाती है, जिसके लिए
हम प्रजा को ऐसे दूषित प्रलोभन दे रहे है, जिससे उनका जीवन नरक बन जाये ? दूसरी ओर
मुझे यह सूचना भी मिली है कि जिन राजकर्मचारियों को हम इसलिए नियुक्त करते हैं कि वे
यह सारा कर उगाहकर राजकोश में जमा करायें, उन कर्मचारियों का सारा बल इस वात पर
होता है कि वे मदिरालयों और घूतगृहों के स्वामियों से कर की आधी राशि लेकर उसे अपने
पास रख लें और उन व्यापारियों को चुपचाप अपना व्यवसाय चलाने दें । इस प्रकार राज्य के
कर का एक बहुत बड़ा अंश व्यवसायियों और राजकर्मचारियों में आधा- आधा वैँंट जाता है ।
राज्य को आय नहीं होती और प्रजा का अहित होता जाता है । इन सारे तथ्यों को ध्यान में
रखकर मैं पूछता हूँ कि क्या राजसभा को यह विचार नहीं करना चाहिए कि हम किस लोभ में
प्रजा के कल्याण की उपेक्षा कर रहे हैं ?””””
“वाह युवराज !” इस बार शकुनि बोला, “आप चाहते हैं कि मदिरालय और चूतगृह
बंद कर दिये जायें ? उनके स्वामियों का व्यापार समाप्त हो जाये और वे सम्मानित प्रजाजन
भूखे मरें ? उनके यहाँ काम करने वाले सेवक, भृत्य- दास- दासियाँ होकर
कर्म/23
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