भावपाहुद प्रवचन | Bhavpahud Pravachan

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Bhavpahud Pravachan by सुमेरचंद जैन - Sumerchand Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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किटः 6 |. ष छै ¢ ছু कधायसे . तपश्यरण करके नवश्रैयेयक . तक उत्पन्न होते हैं । मर यहाँ सम्पसहाषट- शीन की. बात कही जा रही है वह शो स्वमॉसि धोर प्रेवेयकोंके एवं उपसे ऊपरके भ्रहमिन्द्र पद रहते हैं। तो जो एक रास्ता जा रहा है उस्के जोच जो प्ाडडियाँ भातो हैं उसका, भी उसके साथ महत्व बन जाता है। < 3 (४) भादोंकी दोवगुराकार प्रुतता--दोष दैः नरकादिक, तो ज स्वं भर मोक्षका कारणा भाव है ऐसे हो ना रकादिक दृग तियोका कारण भी भाव है, वह सद्भाव है, यह दुर्भाव है । ते मवे भोहै यहे सुग भौर दोषका कारश है, इसलिए भावक शुद्धि करना बहप, चीव को । बाह्यमे क्‍या गुजरता है, किसका कैसा परिणाम है इस शोर यदि विकल्प जरा भ्रीन रहे झौर पपने इस सहज शञानस्वभावका ही उपयोग रहे तो इस जीवका कल्यारण है। कितने . भव गुजर चुके । उन भवोमे भी तो बहुतसा समागम था, लोग थे, जनता होगी, इज्जत चलतो श्री तो वे कैसे स्वप्न थे इस जीवके ? ऐसे ये भी स्वप्न हो जाये गे। तो थोड़े दिनोंके मिले हुए इस समागमोमे अपने प्मापको बहा देना यह भपने लिए उचित बात नही है ॥ तो भावकों ही गुण दोषका कारश जानें, उनमे उत्तम भाप तो गुणके कारण हैं भोर खोटे भाव दुर्गेतिके कारण हैं। मतलब इस जीवका जो कुछ होनहार है बह भावोके भाधारपर है, इस कारम यहाँ भाव लिडुको प्रधान कहा है । जो साँचा मुनि धोर श्रावक है उसके उस योग्य भावलिजु रहता है सो द्रत्यलिड्ुकों परमार्थ न जानता । भावलिज्रुको परमाथें जानता । जैसा संतोने द्वव।लिज्भु धारण किया है याने सहो जैनी दीक्षा ग्रहण को है, दिमम्बर मुद्रा जिस शरोरकी है वह मुनि भावलिज्धी है, तो उसकी द्रभ्यलिङ्धपर दृष्टि न रहेगी । द्रव्यलिजु चलता है, पर द्रव्पलिजुमें मभता नही । द्रव्यलिजभुको देखकर यह मैं हु. ऐसा भाव शाबियोके नही प्राया । (५) छह द्म जी उतर पुद्गले हौ विभावक संभरवता- मावलिङ्गीको तरो पपने भाव ही दृष्टिगत रहते है। जगतमे ९ प्रकारके द्रव्य है-{१) जोव, (२) पुदुगल (३) पर्स, (४) भ्रधर्म, (५) भ्राकाश झोर (६) काल, ज़िसमें जीब तो प्रतन्तानन्त हैं। पृद्गल उससे शी झनन्तानन्त मुने हैं, धर्म्रव्य एक है, प्रधमंद्रव्य एक है, भाकाशद्रव्य एक है, कारसद्वन्य प्रस॑- श्यात ह । इन प्रनन्तानन्त पदार्थामे जो जीवनामक पदार्थ है वह है चैतन्यस्वरूप । पुदूगल है झुस, रस, गंध, स्प्शका पिण्ड । धर्म, प्रधर्म, प्राकाश, काल, . मह प्रमूते दव्य है, इसका, परि- गमन निरन्तर समान चलता है, क्योंकि য चार द्रव्य कभी भ्शुद्ध नही होते, ये प्मूतते हैं, समान परिणसन हैं, सदेव शुद्ध हैं इस कारण इन द्रव्योमे प्रधिक कहने लायक कुछ नहीं है। शेषके शो दो प्रकारके द्रष्य ह जीव भौर पुदुगल, ये प्रशुद्ध होते है। इनका जो भव भवान्तर परि- शमन जलतः है वह्‌ भी क्मानमे प्रासा ह । परृइगलका तो यहू सब म्ॉखोसे हिंगल ही रहा, है




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