प्रेमावतार | Premavtaar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
1 MB
कुल पष्ठ :
69
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[५ |
वाले भोले भक्तदेव इसमें भी बड़ा रहस्य है, जो तुम दोनोंके
मिखपरेपर प्रकाशित दोगा | अच्छा तो तुमने कोन-सी थुक्ति
सोची !
भक्त--महाराज } जिधर गया वहा आनन्द पाया। कहीं भगवानकी रास-
लीला आनन्दकी वर्षों कर रही थी; कहीं पदकीतंन और कहीं
सुन्दर बाजोंकी मधुर ताने पेमके मार्गकी झलक दिखा रही थीं ।
कहीं हरि-नाम-च्वनिकी झनकारें आकाशतक गूँज रही थीं। ऐसे
आनन्दमें में क्या कल्याण और उद्धारकी फिक्र करता !
गुरु--ठीक है, कीत॑न समाप्त हों गया और तुम यहाँ चले आधे) मैंने तुम
दोनोंकी जिस सतलबसे भेजा था वह पूर्ण न हुआ । ज्ञानी तो अपने
ज्ञानधमंडमें आकर संसारके उद्धारके लिपि सत्रसे पहले संवारकी
बुराइयोंकी देखने छगा। पर यह न सोचा कि बुराइयोंके वेगसे
उसके अधूरे ज्ञानकी क्या दशा होगी । क्यों ज्ञानचन्द समश्षे
ज्ञानचन्द--हाँ महाराज ! समझा | परन्तु भाई भमक्तदेव भक्तिबल
होते हुए भी निराश लोट अपरे, इसका क्या कारण है !
गुरु--कारण ! कारण यह है कि उन्होंने अपनी भक्तिके रसरंगमें बुराइयोंपर
निगाह ही नहीं की; केवल अच्छाइयोंको ही देखा ओर बिना शानके
केवल अपना ही कल्याण कर सके | आनन्दसागरमें गोता लगाते
रहे परन्तु दूसरोंकों उस सागरके रस पिलछानेका शान द्वीन
आया ।
भक्त--जी हाँ समझ गया महाराज ! वह कमी ज्ञानहीकी थी |
गुरु--दाँ शानहीकी थी । अकेले अनुरागमार्गसे काम नहीं निकल सकता
और केवल ज्ञानमार्गसे भी काम नहीं चल सकता । सच्चा आनन्द
दोनों मार्गोंके मिलानेसे है। जब दोनों ही पलड़े बराबर होंगे तभी हम
संसारमें सच्चा सुख, सच्चा आनन्द और सच्े प्रेमकी आदश मूर्तियों
प्रकट कर सकेंगे । श्ञानमें भक्तिकी कमी थी और भक्तिमें शानकी ।
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