प्रेमावतार | Premavtaar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[५ | वाले भोले भक्तदेव इसमें भी बड़ा रहस्य है, जो तुम दोनोंके मिखपरेपर प्रकाशित दोगा | अच्छा तो तुमने कोन-सी थुक्ति सोची ! भक्त--महाराज } जिधर गया वहा आनन्द पाया। कहीं भगवानकी रास- लीला आनन्दकी वर्षों कर रही थी; कहीं पदकीतंन और कहीं सुन्दर बाजोंकी मधुर ताने पेमके मार्गकी झलक दिखा रही थीं । कहीं हरि-नाम-च्वनिकी झनकारें आकाशतक गूँज रही थीं। ऐसे आनन्दमें में क्या कल्याण और उद्धारकी फिक्र करता ! गुरु--ठीक है, कीत॑न समाप्त हों गया और तुम यहाँ चले आधे) मैंने तुम दोनोंकी जिस सतलबसे भेजा था वह पूर्ण न हुआ । ज्ञानी तो अपने ज्ञानधमंडमें आकर संसारके उद्धारके लिपि सत्रसे पहले संवारकी बुराइयोंकी देखने छगा। पर यह न सोचा कि बुराइयोंके वेगसे उसके अधूरे ज्ञानकी क्या दशा होगी । क्यों ज्ञानचन्द समश्षे ज्ञानचन्द--हाँ महाराज ! समझा | परन्तु भाई भमक्तदेव भक्तिबल होते हुए भी निराश लोट अपरे, इसका क्‍या कारण है ! गुरु--कारण ! कारण यह है कि उन्होंने अपनी भक्तिके रसरंगमें बुराइयोंपर निगाह ही नहीं की; केवल अच्छाइयोंको ही देखा ओर बिना शानके केवल अपना ही कल्याण कर सके | आनन्दसागरमें गोता लगाते रहे परन्तु दूसरोंकों उस सागरके रस पिलछानेका शान द्वीन आया । भक्त--जी हाँ समझ गया महाराज ! वह कमी ज्ञानहीकी थी | गुरु--दाँ शानहीकी थी । अकेले अनुरागमार्गसे काम नहीं निकल सकता और केवल ज्ञानमार्गसे भी काम नहीं चल सकता । सच्चा आनन्द दोनों मार्गोंके मिलानेसे है। जब दोनों ही पलड़े बराबर होंगे तभी हम संसारमें सच्चा सुख, सच्चा आनन्द और सच्े प्रेमकी आदश मूर्तियों प्रकट कर सकेंगे । श्ञानमें भक्तिकी कमी थी और भक्तिमें शानकी ।




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