भारतीय कहानियाँ | Bharatiya Kahaniyan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
244
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)परल्तु प्रतिक्रियायें मात्र यही नही है। ये चप्रनिकायें विवादास्पद भी बनौं,
इसकी आलोचना भी हुई और इनकी कमियों तथा तथाकथित कमियों की ओर
हमारा ध्याने आकर्षित किया गया। हमारी भूमिका श्रस्तुत प्रयास की कुछ
पंक्षितयों को हमारे ही विरुद्ध इस्तेमाल किया गया, और उन्हें ईमासदारी से कही
गयी साफ़-साफ़ बात ने मानकर 'पेल्फ कस्फेशना (स्त्रीकारोक्ति) मात्रा गया ।
हम यहां फिर दुहराना चाहेगे कि इस प्रकार का कोई भी प्रयास विवाद से परे
नहीं हो सकता। कम्र से कम हमारा तो यह दावा कदापि नहीं है कि हमने
परिपूर्णता को प्राप्त कर लिया है और हमारा प्रयास सर्वया त्रुटिहीन है ।
प्रतिनिधि रचना-पयन के सम्मुख प्रश्वचिन्ह लगाये जा सकते है, सम्प.दकीय भूलो
की ओर संकेत किया जा सकता है और अनुवाद के दोष भी मिनाये जा सकते
हैं, प्रस्तुतीकरण मे भी कुछ कमियाँ हो सकती हैं। परन्तु हम इतना तो कहना ही
चाहेंगे कि यह कम से कम एक प्रयास तो है और यह प्रयास भरसक सदाशयता के
साथ किया गया है। आज साहित्य ख़े मों, धाराओं, पीढियो, वादों ग्रुटो आदि मे
बंट कर टुकड़ें-टुकड़े हो चुका है। ऐसे समय में पूर्वाग्रहों और पक्षपातों से यथासं मव
* बचे रहकर केवल साहित्यिक मूल्यों के प्रति अधिकाधिक निष्ठाब।न हो काम करने
की हमारो विनम्र प्रवृत्ति थोडी-बहुत प्रोत्साहनीय तो है ही ।
कुछ आलोचनायें ऐसी हैं जो वास्तव में आलोचना न होकर सुझाव और
प्रेरणा-त्लोत के समान हैं और जिन्हे स्वीकार करने में हमारे झिझकने का कोई
प्रश्न ही नही उठता। तथापि कुछ आलोचनाएं ऐसी भी हुई है जिनके बारे
में कुछ कहना आवश्यक है। एक समीक्षक महोदय ने श्रश्न उठाया है--' यह
आभः प्रौर यह् वर्तमानः वया है ? षया वहु जीवन का घृणित प्रधेरा मौर दुभथ
पक्ष है जिम्तका चित्नण इस संकलन को अधिकाँश कहानियों में मिलता है ?***
लगता नहों भारतोय कया साहित्य का चेहरा काफ़ी-कुछ पहचानने में आ सकता
है।' 'लगता है कहानी के प्रति एक विशेष भ्रकार का दृष्टिकोण रखने वाले
चयनकता को हो चुना गया है और उन्होंने एक दृष्टिकोण से कहानियों का चयन
किया है ।”
इस आलोचना के दो पक्ष है। एक ओर तो यह आलोचना मूल्य-विघटन और
माघुनिक जीवेन की विसंगतियो-विद्र पताभो को चित्रित करने वाली रचनाओं
के स्थायी मूल्य के सम्मुख प्रश्मचिन्ह लगाती है। यह एक बहुत ही विवादास्पद
प्रश्न है कि अतियथार्थवादी साहित्य को श्रेष्ठ माना जाए कि नही, डिन््तु इस बहस
को यहां उठाना व्यावहारिक तथा वांछनीय नही होगा 1 दूसरी भोर इस आलोचना
में हमारो और चयनकर्ता दोनों की ही नीयत पर शक किया गया है। इस
विषय में हम क्या कहे ! केवल यही कह सकते हैं कि यह मत इतनी दृद तापूवक
व्यक्त करने से पहले समीक्षक महोदय कुछ साहित्यिक बन्धुओं से परामर्श कर
प्रस्तुत प्रयास | 7
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