जीवन - साहित्य | Jeewan Sahithya

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Jeewan Sahithya by काका कालेकर -Kaka Kalekar

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about काका कालेलकर - Kaka Kalelkar

Add Infomation AboutKaka Kalelkar

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
साहित्य-सेवा ११ भी नहीं होता । पुराणकारोंने जिस तरह अमृत, अप्सरा और ओध्यासे भरे हुए स्वगंकी कल्पना की, अस तरह आजकलके अपन्यासकार असेही किसी बकार आदमीकी कल्पना करते हैं ज्ये बकील-बेरिस्टर हआ हो, जिसने विलायतका सफर किया हो या वसीयतनामेसे जिसको खूब पैसा मिला हो और असके त्मने संतुष्टः नरथक जावनका सविस्तार वणेन करते हे । जातिभेद हमारे मनोरथोंमे भी अतना भरा हुआ है कि मध्य श्रेणीके बाहरकी दुनियाका हम नहीं देख सकते । बिलकुल गरीब लोगोंका जीवन हमें दयापातन्न किन्तु रहस्यशन्य लगता है असपके अस बारहसींगकी तरह हम सिरपरके सींगोके गरूरमे अपने पतले पैरांका तिरस्कार करने लगे है, या तिरस्कार करने जितना भी ध्यान हम अनकी तरफ नही देते। कम और पुन्जन्म- के सिद्धान्तका आश्रय लेकर हम अपने अनाथद्रोहको दक लेते है, अनाथोंकी सेवा तो दूर रही, अनका स्मरण तक हम नहीं करते । अंग्रेज़ कवि हडके 8078 ०1 ४1९ 81975 ( कमीजका गीत ) की बराबरी कर सके औअसा मौलिक काव्य क्‍या किसीने लिखा है ? असपके अस बारहसींगेकी जो हालत अन्तम हृ वही हालत हमारी हमेशा होती आयी है। और अव तो विनाश- की घटाओं सिरपर मंडरा रही है । हमारा लोकप्रिय साहित्य हमारी सामाजिक स्थितिका सचन करता है। जो कुछ दिलमे होगा वही होठोंपर आयेगा न ? गशरीबोंकी मुश्किल कौन-कोनसी हे, अनका दर्द-दु.ख क्‍या है, अनके सवाल कितने पेचीदा और विशाल है अन सब बातो पर ज़िम्मेदारीके साथ विचार करके असली सवाल हल कर सक असो योजना जब होगी तभी गरीबोके दिलोमे कु आशा पेंढा होगी न ? जिसकी हम হল चुराते है असीको अगर दानमे छोटीसी सओ देते हों तो उसे लेते समय लेनेवालेके दिलमे केसी भावना झुत्पन्न होगी ? हमारा




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now