कृष्ण गीता | Krishna Geeta

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Krishna Geeta  by दरबारीलाल सत्यभक्त - Darbarilal Satyabhakt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १२) कटप्रेमी, विनयी, त्यागी, चतुर ओर समया भे किं उनकी पृणोवतार कहने म कु भी अनौचिल्य नदीं है । हिन्दृ-धम्‌ के संस्थापक रूप में अगर श्रीकृष्ण का माना जाय तो भी कोई अत्युक्ति न होगी । निःसन्देह वे इतन पुरान हैं कि उनके उपदेशों का विशेषरूप पाना कठिन है पर कुछ सामान्य बातें अवश्य मिल सकतीं हैं, जैसे कमंयोग, दशन और धर्मो का समन्वय, सुधारकता आदि । इन्दं सामान्य बातों के आधार पर उनके नाना विरोषरूप चित्रित कयि जा सक्ते दै । गीता का नूतन सूप इस जगह यह सब छलिखने का प्रयोजन यह है कि सत्य- समाज के संस्थापक ने प्रस्तुत पुस्तक में उस कम-योग-संदेश को ऐसे नूतन रूप में प्रतिपादित किया है कि जो उस समय के लिये पूर्ण संगत होने के साथ साथ वर्तमान सामाजिक, धार्मिक और नैतिक समस्याओं के डिये भी सुन्दर हल बन गया है । নাল अध्यायम जाति-मोहका विरोध करतेहुये कहते हैं:-- “जब था जाति-भेद जीवन में समता देने वाला। बेकारी की जटिल समस्याएं हर लेने वाला ॥ जब इसके द्वारा धंधे की चिन्ता उड़ जाती थी | तभी श्रुति स्मृति जाति-भेद को हितकर बतलाती थी ॥ इससे अच्छी तरह अथ का होता था बटवारा । देता था संतोष सभी को बनकर शांति-सहारा ॥ सुविधा की थी बात वर्ण का था न मन॒ज अभिमानी | विप्र शूद्र सब एक घाट पीते थे मिल कर पानी ॥ जातियों हमने बनाई कर्म करने के लिये । हैं नहीं ये दूसरों का मान हरने के लिये ॥




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