शैव मत | Shaiv Mat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्रथम अध्याय ५, देती है, त्तः यह उपमा भी शी ही अतिशयोक्ति में बदल जाती है ओर रुद्र के समान ही सोम के भी गजेन और खर का उल्लेख होता है ' । सोम के इस गर्जन और खण के कारण ही सम्मवतः उसको एक स्थान पर वृषभ की उपाधि भी दे दी गई है * सद्र के स्वरूपकी जो व्याख्या ऊपर की गई है, उसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि ऋग्वेदीय सूक्तो से रुद्र का अग्नि से गहरा सम्बन्ध है। अग्नि को अनेक बार रुद्र कहा गय्ना है '। यह ठीक है कि अग्नि को रुद्र मात्र कहने का ही कोई विशेष अर्थ नहीं है, क्योंकि ये सब केवल उपाधि के रूप में भी किया जा सकता है जिसका अथ्थ है--क्रूर अथवा गजन करनेवाला, ओर इसी अर्थ में इस उपाधि का इन्द्र और अन्य देवताओं के लिए भी प्रयोग किया गया है । परन्तु एक स्थल पर रुद्र को 'मेधापति' की उपाधि दी गई है *। इससे रुद्र ओर अग्नि का तादात्म्य कलकता है। यदि हम रुद्र को विद्युत्‌ का प्रतीक मानें, जो वास्तव में अग्नि ही है, तो इस ताद्ात्म्य को आसानी से समझा जा सकता है। उत्तर- कालीन वेदिक-साहित्य में इस तादात्म्य को स्पष्ट रूप से माना गया है और फलस्वरूप सायणाचार्य” ने निरन्तर दोनों को एक ही माना है। रुद्र और अग्नि के इस तादात्म्य को ध्यान में रखते हुए हम शायद रुद्र की 'हिवहाँ? जेसी उपाधियों का भी समाधान अधिक अच्छी तरह कर सकते हं। इस शब्द का अनुवाद साधारणतया কুলি নত का? अथवा श्ुगुना बलशाली किया जाता है] परन्तु इसका अधिक स्वाभाविक और उचित अर्थ वही प्रतीत होता है जो सायण ने किया है। अर्थात्‌-- द्योः स्थानयोः पृथिव्याम्‌ अन्तरिक्ते प्रिवृद्ध ये अथ विद्युत्‌ पर पूरी तरह लागू होता है, क्योकि विद्यु तू ही जब प्रथ्वी पर आती है तब अग्नि का रूप धारण कर लेती है। अथवा (हाँ शब्द का अर्थ यहाँ कर्लगी ते है जैसा कि वहीं (अर्थात्‌ मोर) में, द्विवर्हा का अर्थ हो सकता है--दो कलंगीवाला | इस त्र्थ में इस शब्द का सकेत दुकाटी विद्यु तू की ओर होगा | इस सम्बन्ध मे एक रोचक वात यह है कि ऋग्वेद के प्राचीनतम भागों में र्व और अग्नि का तादात्म्य नही है, वल्कि उनमें स्पष्ट मेद किया गया दै | इससे प्रतीत होता है कि विद्युत्‌ के प्रतीक रुद्र और पार्थिव वह्ि के प्रतीक अग्नि का तादात्म्य वैदिक ऋषियों को धीरे-धीरे ही ज्ञात हुआ था, किन्तु एक समय ऐसा भी था जब इन दोनों को अलग-अलग तत्त्व माना जाता था | रुद्र:-अग्नि, इस साम्य को एक वार मान लेने पर, इसको वडी सुगमता से रद्र त्रग्नि- ० फैंस तक बढाया जा सकता है, ओर कुछ ऋग्वेदीय यूक्तों से ही प्रतीत होता है कि उस समय भी रुद्र और सं के इस तादात्म्य को पियो ने पहचान लिया था। इससे हमे १. कऋण्वेद ˆ ९, ८६, &, €, ९१, ३, &, €५, ४ इत्यादि । २. ३ ९3 ७, ३1 ३, ,, २, १, ६, ३, २, ५। ४ নর १, ४३, ४ | पर छ १, ११४, ६ पर सायण की टीका।




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