ओटक्कुषल | Otkkushal

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Otkkushal by लक्ष्मीचंद्र जैन - Lakshmichandra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यह छाप ही कलाकार का व्यक्तित्व है, कथावस्तुओं का प्रकाश ही कला है। अपने कलात्मक जीवन की अनुभतियों से कविता के सम्बन्ध में यही कुछ म॑ समझ पाया हू । मेरे लिए कविता आत्मा का प्रकाश मात्र है। जैसे धूसर क्षितिज पर सन्या की छवि प्रतिविवित होती है वैसे ही बन्धुर छंदों के पदवन्यो मे कवि का हृदय प्रतिविवित होता है। इस आत्म-प्रकाश से और कुछ बने या न बने, किन्तु एक कलाकार के लिए यह परमानन्द का कारण तो है ही । जैसे मंद पवन हंस के पंखों को ऊपर उड़ा ले जाता है वैसे ही परमानन्द की यह्‌ अनभूति एक कलाकार की आत्मा को भौतिक शरीर से परे उठा ले जाती है। प्राचीन मनुष्य दारा गुहा-भित्ति पर अंकित हिरन के चित्र को ही लीजिये । जव मनुष्य के हृदय से निकल कर वह हिरन अचलं शिला पर दौडने लगा तव उसके साथ उस मनुष्य की आत्मा ने कितनी उड़ानें भरी होंगी । उस मनुष्य की अनुभूति का वह्‌ प्रतीक जव उसके मित्रौ के हृद्यो को मी पूलकित करने लगा तव वे भी उसके निकट खिच अनि लगे । इस प्रकार जो केवल एक व्यक्ति की आत्मा का प्रकाश था उसका एक सामाजिक मूल्य उत्पादन हो गया । एक कवि होने के कारण अपनी अनुभूतियों का प्रकाश ही मेरे लिए परमानन्द का विषय है । और यदि उस आनन्द का आस्वादन अन्य लोगों को भी करा संका तो वह मेरी विजय होगी । उससे मेरी कला को एक सामाजिक आधार मिलेगा । लोगों का उत्कषं अन्य लोगों के द्वारा हो अथवा मेरे द्वारा! यह अनभति कंसी वांछनीय है, और कितनी आत्म-संतृष्ति है उसमें ! कविता व्यक्तिगत अनुभवों का प्रकाश है। मुत्तुकक' नामक अपने कविता- संग्रह में मैंने अपनी यह घारणा प्रकट की थी। जीवन के यथार्थ-अनुभवों के आघात से हृदय में उत्पन्न होनेवाली मधुर संवेदनाओं को कल्पना का आवरण पहनाकर प्रकट करना ही रचना है। उसमें व्यक्ति की प्रधानता रहती है। इत्यूजन एण्ड सियिलिटी' नामक एकं पुस्तक मैंने पढ़ी थी । उस पुस्तक में उपर्युक्त कथन का प्रतिवादन यह प्रमाणित करने के लिए किया गया था कि कला व्यक्ति की नहीं समाज की सृष्टि है। ये दोनों बातें परस्पर विरोधी लगती हैं । किन्तु वास्तव में है एक ही सत्य के दो पहलू । क्योंकि व्यक्तिगत अनुभव सामाजिक अंतुभवों का अंग है और व्यक्ति सांमाजिक परिस्थितियों की उपज है । ` मेरे गोव के हरे मैदान, सुनहरे खेत, ग्राम्य हृदंय में मस्तक ऊँचा किये खड़े रहनेवाला प्राचीन मंदिर, दरिद्वता में डूबा हुआ प्रतिवेश, कवि कल्पना को अपने पास वुलानेवाली पहाड़ियाँ इन्हीं सब ने मेरे हृदय को स्वप्नों से भर दिया था और फिर ११




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