भारतीय दर्शन की रुपरेखा | Bharatiya Darshan Ki Ruprekha

Bharatiya Darshan Ki Ruprekha by डॉ. गोवर्धन भट्ट - Dr. Govardhan Bhattश्रीमती मंजु गुप्त - Shrimati Manju Gupta

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श्रीमती मंजु गुप्त - Shrimati Manju Gupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका 15 लक थे परे पहुँचना है । दृष्टिकोण की यह विलक्षणता इस तथ्य से आई है कि भारत में दशंन उस प्रकार कुतूहल या जिज्ञासा से उत्पन्न मही हुआ जिस प्रकार चर्यिम में उत्पनन हुआ प्रतीत होता है। उसके विपरीत यहाँ उसका जीचन में नैतिक और भौतिक बुराई की उपस्यिति मे पंदा होने वाली व्यावहारिक भावइ्यकता से हुआ । प्राचीन भारतीय विचारक को सबसे अधिक अशान्ति जिससे हुई बहू थी इस बुराई को दूर करने की समस्या और सभी तस्‍्तों में मोक्ष उस भवस्था का नाम है जिसमे यह समस्या एक या दूसरे में हल हो गई हो । दाशंनिक सिस्तन का मुख्य लक्ष्य जीवन के नलेशों को दर करने का उसाम ढूंढना था और तात्विक प्रदनों का विचार एक आनुष॑ंगिक बात मात्र था । इसका स्पष्ट आभास या तीयेकर शब्द से मिलता है जिसका प्रयोग कही-कही विभिरन सम्प्रदायों के सस्मापकों के लिए किया गया है । व्युत्पत्ति थे इस दाव्द का अर्य है तीयं अर्थात्‌ पार करने की जगह बनाने वाला भर लक्षणा मे अर्थ है नह जिसने ससारर्पी महासागर के पार जाने का उपाय ढूँढ लिया हो । मह भापत्ति उठाई जा सकती है कि मोक्ष तो परलोक की चीज़ है इस- किए कल्पना की उपज मात्र है और फलपः इसे दर्शन का लक्ष्य मुर्शिकिल से ही माना ना सकेगा भले हो थम का लक्ष्य इसे माना जा सकता हो । फिर भी धास्तव में ऐसा सोचने का कोई कारण नहीं है क्योंकि भारतीयों की बुद्धि में इस ठोक और इस जीवन में साध्य आदर्श का विधार निरन्तर बना रहा भौर जिन सम्प्रदायों में प्रारम्भ में यह विचार नही था वे भी शीघ्र ही मोश के भादर्श को इसी जीवन में प्राप्त हो सकने वाला मानने लगे तथा इसे जीवन्मुक्ति के रुप में देखने लगे । इसके बावजूद भी मिरसन्देहू यह भादर्श शूर को ही चीज़ है लेकिन महरव की बात यह है कि इसे ऐसी चीज़ मानने की बात समाप्त हो गई जिसे परकोक में ही प्राप्त किया जा सकता हो । मब मनुष्य का छकष्य किसी काल्पनिक लोक में पूर्णता की प्राप्ति करता नहीं रह गया बल्कि इसी जीवन में निरम्तर उसकी ओर बढ़ते रहना हो गया । सीवन्मुक्ति के शाद्श को संदान्तिक रूप में स्वीकार न करने वाले न्याय- नेदोपषिक और विशिष्टाइंत जैसे दर्शनों में भी इहलोक में ही मनुष्य के ज्ञान की ऐसी अवस्था को प्राप्त होने की सम्भावना को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है जो संसार के प्रति मनुष्य के दृष्टिकोण को पूर्णतः बदलकर बाद के पं. बयान न स्यामसतभाव्य 4 2.2 कृत न्वायवार्तिक 1.1.1 भम्त त्तक 1 २८. रामानुन-झत श्रीभाष्य 4.1.13._




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