कला की दृष्टि | Kalaa Ki Drishti
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
176
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कला की दृष्टि ५
उपयोक्त बात कहकर बह कुर्ती छोड़ उठ खड़ा हुआ। विष्णु
ने पूछा क्यों, कहाँ चले ? ओर विपिन आगे बढ़कर छज्जे पर
पड़ी आराम कुर्सी पर आ बेठा | बेठा क्या, बल्कि लेट गया,
दोनों पटरों पर पैर फेलाकर ।
विनोद ने कहा--आजञज इनका मृडः इदं बदला हुआ
देख पडता है ।
विष्णु बोला--तो भी कुछ सुना डालो इसी बात पर, विपिन
बाबू । लेकिन भई, कोई ऐसी बात सुनाना, जिसका सम्बन्ध
तुम्हारे जीवन से हो, उसके निर्माण से ।
विनोद ने सिगरेट का उन्धा च्रोर दियासलाई का बक्स इसी
क्षण उसके सामने कर दिया।
विपिन चुपचाप रहा, ज़रा भो न हिला-डुला ।
विनोद तब बोल उठा--क्ष्यों सुलगाते क्यों नहीं !
विष्णु भी कहने लगा--हाँ जल्लाओ, जलाओ यार !
तब विपिन विनोद की ओर एकटक देखता रहू गया । बड़ी-बड़ी
उसकी आँखें पूरी-को-पूरी खुल गईं, एक निःश्वास लेकर उसने
डब्बे से एक सिगरेट निक्राल लो ओर पटरे पर बार-बार उसे
हलके से ठोक्रते हुए वह कहने लगा-जीवन-भर सुलगता ही तो
रहा हूँ विनोद, जल कभी नहीं सकरा । फेवल घुआँ ही निःसत
हुआ है मुभसे ।--जलने का अवसर तो अब आया है।
अवाक् शरोर विस्मयाकुल होकर, विनोद ओर विष्णु इसे
देखते रह गये ।
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