जैनेन्द्र सिद्धांत कोश : भाग 3 | Jainendra Sidhant Kosh Bhag-3
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
45 MB
कुल पष्ठ :
592
श्रेणी :
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ए. एन. उपाध्याय - A. N. Upadhyay
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हीरालाल जैन - Heeralal Jain
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पद्धति
कथित क्रमसे शुक्लध्यानको अनुभव करते हुए भावमोक्षको प्राप्त
करता है ! (द्र, स,।री.२५।१५६।३) 1
द. सं (री.(४१।१६९।११ समवसरणे मानस्तम्भावलोकनमात्रादेवागम-
भाषया दर्शनचारित्रमोहनीयोपशमक्षयसज्ञेनाध्यात्मभापया स्व्ुद्धा-
रमाभिमुखपरिणामसन्ञेन च कालादिलव्धिविरेपेण मिथ्यात्वं
विलयं गत 1 = (इन्दरभरुति जन) समवसरणमे गये तब मानस्तभके
देखने मात्रसे ही आगम-भाषामें दशन मोहनीय तथा चारित्र
मोहनीयके क्षयोपशमसे और अध्यात्म भाषामें निज, शुद्ध आत्माके
सन्मुख परिणाम तथा कालादि लच्धियोके विशेषतते उनका मिथ्यात्व
नष्ट हो गया । (द्र, स,/टी,/४५/१६४/७ ।
४. सम्यरदशनकी अपेक्षा
स, सा./ता, वृ (१४४/२०८/१० अध्यात्मभाषया शुद्धात्मभावनां নিলা
आगमभाष्रया त्रु वीतरागसम्यवत्वं विनः दतदानादिक् पुण्यवन्धकार-
णमेव न च मुनितकारणम् 1 = अध्यात्म भापामें युद्धास्माकी भावनाके
चिना ओर आगम भापामे वीतराग सम्यक्त्वके चिना बत दानादिक
पुण्यनंधकरे हौ कारण ই, मुक्तिके कारण नहीं ।
दर, स,|रो /३८।१५६/४ परमागमभापया पञ्चविगततिमलरहिता
तथाध्यामभाषया निजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूपा सम्यवत्वभावनव
मुख्येति विज्ञेयम्् | *परमागम भापासे पच्चीस दोषोसे रहित
सम्यग्द्शन और अध्यात्म भाषासे निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, इस
प्रकार जो रुचि है उस रूप सम्यवत्यकी भावना हो मुख्य है। ऐसा
जानना चाहिए ।
७, ध्यानकी अपेक्षा
स, सा,/ता, व् /२१६/२६६/१३ (अध्यात्मभापया ) परमार्थदव्दाभि-
घेय॑ -शुद्धात्मसवित्तिलक्षणं परमागमभाषया वीतरागधर्मध्यानशुक्ल-
ध्यानस्वरूपम् ॥ -*( अध्यात्म भाषासे ) परमार्थ शब्दका वाच्य
शुद्धात्म सवित्ति है लक्षण जिसकय और परमागम भाषासे बीतराग
धर्मध्यान ओर शुकलध्यान कहते हे ।
प, का,(ता, वृ.(१८०/२१६।१७ (अध्यात्मभाषया) शुद्धात्मानुश्नतिलक्षण-
निर्विकल्पसमापिसाध्यागमभापया रागादिविकल्परहितशुक्लध्यान-
साध्ये वा1 =( अध्यात्म भापानते) णुद्भातमानु्रुति है लक्षण जिसका
ऐसी निर्विक्व्प समाधि साध्य है, ओर आगम भाषासे रागादि
विकल्प रहित शुक्लध्यान साघ्य है । (प प्र/री.1१।१।६।२) 1
द्र, स [री ४८।२०१,२०४ घ्यानस्य तावदागमभापया विचित्रभेदा,
1३०३ अध्यात्ममापया पुन. सहजशुद्धपरमचेतन्यशालिनि निर्भरा-
नन्दमालिनि भगवति निजात्मन्दुपदेयबुद्धि कृत्वा पश्चादनन्त-
ज्ञानो5म् इत्यादिरूपमम्यन्तरघर्म ध्यानमुच्यते । तथ व स्वशुद्धात्म नि
निविकक्पसमाधिलक्षण शुब्लध्यानमिति | *आगम भाषाके अनुसार
ध्यानके नाना प्रकारके भेद है ।२०१॥ अध्यात्म भापासे सहज-शुद्ध-
परम चेतन्यशाली तथा परिपूर्ण आनन्दका घारी भगवान् निजात्मा
है, उसमें उपादेय बुद्धि करके, फिर 'मै अनन्त ज्ञानका घारक हैँ
इत्यादि रूपसे अन्तर ग धर्मध्यान है। * उसी प्रकार निज शुद्धात्मामें
निविकत्प ध्यानरूप शुकलध्यान है ।
६. चारित्रकी अपेक्षा
प, का,ता. दे,(१४८/२२८/१६ [अध्यात्ममापया] निजशुद्धात्मसवित्त्य-
नुचरणरूप परमागमभाषया बीतरागपरमसामायिकसज्ष स्वचरितं
चरति अनुभवति । = (अध्यात्मभापासे) निज शुदधात्माकी सवित्ति
रूप अनुचरण स्वरूप, परमागम भापासे वीतराग परम सामायिक
नामके स्वचारित्रफो चरता है, अनुभव करता है ।
प.का(ता वृ,१७१।२९४।१८ य' कोऽपि ुद्धात्मानमुपादेय कृत्वा आगम-
মাঘগা मोक्ष वा व्रततपश्चरणादिक करोति । = जो कोई (अध्याम-
भा० ३-२
पद्मगुल्म
भाषासे) शुद्धात्माकों उपादेय करके, आगम भाषासे मोक्षकों आदेय
करके ब्रत तपश्चरणादिक কৰা ই
४, तक व सिद्धान्त पद्धतिमें अन्तर
द्र संदी /१४/ ९८६४ तर्काभिप्रायेण सत्तावतोकनदर्शन व्याख्यातम् ।
सिद्धान्ताभिप्रायेण उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्त यत् प्रयत्म॑ तद्भप यतत्
स्वस्यात्मन. परिच्छेदनमवलोकनं तदशन भण्यते ! = तकके
अभिप्रायसे सत्तावलोक्नदर्शनका व्याख्यान विया । सिद्रान्तके
अभिप्रायसे आगे होनेवाले ज्ञानकी उत्पत्तिके लिए प्रयत्न रूप जो
आत्माका अवलोकन वह दर्शन कहलाता हे ।
द सं दौ.४४।१६२।३ तर्के सुख्यवृत्या परसमयन्याख्यानं स्थूलव्या-
ख्यान ** सिद्धान्ते पुन स्वसमयन्याख्यान सुख्यवृत्या सृष््म-
व्याख्यानम्. ! = तर्के पुख्यतासते अन्यमतौका व्याख्यान होता है ।
स्थूल अर्थाच त्िस्तृत व्याख्यान होता है। सिद्धान्तमें मुख्यतासे निज
समयका व्याख्यान है, सूक्ष्म व्याख्यान है ।
भ, उस्वगं च अपवाद व्याख्यानर्म अन्तर
„ का,।ता, वृ ।१४६।२१२।६ सक्लश्रतघारिणा ध्यान भवतति तदुत्सर्ग-
वचन, अपवादव्याख्याने तु पठ्चसमित्तित्रिग्रुप्तिप्रतिपादक श्रु तिपरि-
ज्ञानभात्रेणे ब केवलज्ञान जायते। बसच्रवृषभनाराचर्सज्ञप्रथमसहननेन
ध्यान भवत्ति तदप्पुत्सर्गवचन अपवादव्याख्यान प्रुनरपूर्वादिगुण-
स्थानवर्तिना उपदामश्नपकश्रेण्यो्यच्छुबलध्यान तदपैक्षया स नियम
अपूर्वादधस्तनगुणस्थानेपु धर्मध्याने निषेधक न भवति। सकल
श्रुतधारियोंको ध्यान होता है यह उत्सर्ग वचन है, अपवाद व्याख्यान-
से तो पाच समिति और तीन गुप्तिको प्रतिपादन करनेवाले श्ास्त्रके
ज्ञानसे भी केवलज्ञान होता है। -वज्बृषभनाराच नामको प्रथम
सहननसे ही ध्यान होता है यह उत्सर्ग वचन है! अपवाद रुप
व्याख्यानसे तो अपूर्वादि ग्रुणस्थानवर्त्ती जीवोके उपशम व क्षपक
श्रेणीमें जो शुक्लध्यान होता है उसकी अपेक्षा यह नियम है। अपूर्व-
करण गुणस्थानसे नीचेके गुणस्थानोमे धर्मध्यानका निषेध नहीं होता
है। (द्र, स टी.1४०/२३२/४) ।
* आगमके घारों अनुयोगोकी कथन पद्धतिर्में अन्तर
--दे० अनुयोग/१ 1
শি
पद्य-- १, चक्रवर्तीकी नव निधियोमेंसे एक-दे० शलाकापुरुष|३।
२ अपरविदेहस्थ एक क्षीत्र-दे० लोक/9७1 ३ कालका एक प्रमाण
+दे० गणित/1/१। ४, प्वाँ व्तदेव था। अपरनाम राम था-दे०
হাস) ५, ध्वी बलदेव था। अपरनाम ब्त था । -दे° शलाका-
पुरुष|३। ६, म, पु,/६६/श्लोक न, पूर्व भव न॑, २ में श्रीपुर नगरके
राजा प्रजापाल थे (७3) । फिर अच्युत स्वर्गमें देव हुए (७४)। वर्तमान
भवमें धवे चक्रवर्ती हुए। (अपरनाम महापद्म था (ह, पु./२०/१४) ।
विशेष परिचय--दे० शलाकापुरुप/२ ।
पद्यक्की ति---.आप एक भट्टारक थे । आपने पाए्व पुराण (अपभ्रद्ध) की
रचना की थी । समय--वि, ६६६ ई० १४२ (म, पु |#,/२०/पन्नालाल)
प्यकूट --? पुं विदेहस्य एक वक्षारगिरि--दे० लोक/७। २ र्व
विदेहस्थ पद्मक्ूट वक्षारका एक कूट-दे० लोक/७1 ३ श्रद्धावाद्
वक्षारका एक कूट-दे० लोक/७। ४, रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दै०
लोक/७ ।
पद्ययुट्ल--म, पु/६६प्लोक विदेह कषत्रस्य वत्स देशक सुसीमा
नगरीके राजा थे (२-३) 1 चन्दन नामक पुत्रको राज्य देकर दीक्षा
घारण कर ली (१५-१६) | विपाकसूत्र तक सब अगोका अध्ययन किया
तथा चिरकाल तक घोर तपश्चरण कर तोर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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