जैनेन्द्र सिद्धांत कोश : भाग 3 | Jainendra Sidhant Kosh Bhag-3

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ए. एन. उपाध्याय - A. N. Upadhyay

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हीरालाल जैन - Heeralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पद्धति कथित क्रमसे शुक्लध्यानको अनुभव करते हुए भावमोक्षको प्राप्त करता है ! (द्र, स,।री.२५।१५६।३) 1 द. सं (री.(४१।१६९।११ समवसरणे मानस्तम्भावलोकनमात्रादेवागम- भाषया दर्शनचारित्रमोहनीयोपशमक्षयसज्ञेनाध्यात्मभापया स्व्ुद्धा- रमाभिमुखपरिणामसन्ञेन च कालादिलव्धिविरेपेण मिथ्यात्वं विलयं गत 1 = (इन्दरभरुति जन) समवसरणमे गये तब मानस्तभके देखने मात्रसे ही आगम-भाषामें दशन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीयके क्षयोपशमसे और अध्यात्म भाषामें निज, शुद्ध आत्माके सन्मुख परिणाम तथा कालादि लच्धियोके विशेषतते उनका मिथ्यात्व नष्ट हो गया । (द्र, स,/टी,/४५/१६४/७ । ४. सम्यरदशनकी अपेक्षा स, सा./ता, वृ (१४४/२०८/१० अध्यात्मभाषया शुद्धात्मभावनां নিলা आगमभाष्रया त्रु वीतरागसम्यवत्वं विनः दतदानादिक्‌ पुण्यवन्धकार- णमेव न च मुनितकारणम्‌ 1 = अध्यात्म भापामें युद्धास्माकी भावनाके चिना ओर आगम भापामे वीतराग सम्यक्त्वके चिना बत दानादिक पुण्यनंधकरे हौ कारण ই, मुक्तिके कारण नहीं । दर, स,|रो /३८।१५६/४ परमागमभापया पञ्चविगततिमलरहिता तथाध्यामभाषया निजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूपा सम्यवत्वभावनव मुख्येति विज्ञेयम््‌ | *परमागम भापासे पच्चीस दोषोसे रहित सम्यग्द्शन और अध्यात्म भाषासे निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, इस प्रकार जो रुचि है उस रूप सम्यवत्यकी भावना हो मुख्य है। ऐसा जानना चाहिए । ७, ध्यानकी अपेक्षा स, सा,/ता, व्‌ /२१६/२६६/१३ (अध्यात्मभापया ) परमार्थदव्दाभि- घेय॑ -शुद्धात्मसवित्तिलक्षणं परमागमभाषया वीतरागधर्मध्यानशुक्ल- ध्यानस्वरूपम्‌ ॥ -*( अध्यात्म भाषासे ) परमार्थ शब्दका वाच्य शुद्धात्म सवित्ति है लक्षण जिसकय और परमागम भाषासे बीतराग धर्मध्यान ओर शुकलध्यान कहते हे । प, का,(ता, वृ.(१८०/२१६।१७ (अध्यात्मभाषया) शुद्धात्मानुश्नतिलक्षण- निर्विकल्पसमापिसाध्यागमभापया रागादिविकल्परहितशुक्लध्यान- साध्ये वा1 =( अध्यात्म भापानते) णुद्भातमानु्रुति है लक्षण जिसका ऐसी निर्विक्व्प समाधि साध्य है, ओर आगम भाषासे रागादि विकल्‍प रहित शुक्लध्यान साघ्य है । (प प्र/री.1१।१।६।२) 1 द्र, स [री ४८।२०१,२०४ घ्यानस्य तावदागमभापया विचित्रभेदा, 1३०३ अध्यात्ममापया पुन. सहजशुद्धपरमचेतन्यशालिनि निर्भरा- नन्दमालिनि भगवति निजात्मन्दुपदेयबुद्धि कृत्वा पश्चादनन्त- ज्ञानो5म्‌ इत्यादिरूपमम्यन्तरघर्म ध्यानमुच्यते । तथ व स्वशुद्धात्म नि निविकक्पसमाधिलक्षण शुब्लध्यानमिति | *आगम भाषाके अनुसार ध्यानके नाना प्रकारके भेद है ।२०१॥ अध्यात्म भापासे सहज-शुद्ध- परम चेतन्यशाली तथा परिपूर्ण आनन्दका घारी भगवान्‌ निजात्मा है, उसमें उपादेय बुद्धि करके, फिर 'मै अनन्त ज्ञानका घारक हैँ इत्यादि रूपसे अन्तर ग धर्मध्यान है। * उसी प्रकार निज शुद्धात्मामें निविकत्प ध्यानरूप शुकलध्यान है । ६. चारित्रकी अपेक्षा प, का,ता. दे,(१४८/२२८/१६ [अध्यात्ममापया] निजशुद्धात्मसवित्त्य- नुचरणरूप परमागमभाषया बीतरागपरमसामायिकसज्ष स्वचरितं चरति अनुभवति । = (अध्यात्मभापासे) निज शुदधात्माकी सवित्ति रूप अनुचरण स्वरूप, परमागम भापासे वीतराग परम सामायिक नामके स्वचारित्रफो चरता है, अनुभव करता है । प.का(ता वृ,१७१।२९४।१८ य' कोऽपि ुद्धात्मानमुपादेय कृत्वा आगम- মাঘগা मोक्ष वा व्रततपश्चरणादिक करोति । = जो कोई (अध्याम- भा० ३-२ पद्मगुल्म भाषासे) शुद्धात्माकों उपादेय करके, आगम भाषासे मोक्षकों आदेय करके ब्रत तपश्चरणादिक কৰা ই ४, तक व सिद्धान्त पद्धतिमें अन्तर द्र संदी /१४/ ९८६४ तर्काभिप्रायेण सत्तावतोकनदर्शन व्याख्यातम्‌ । सिद्धान्ताभिप्रायेण उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्त यत्‌ प्रयत्म॑ तद्भप यतत्‌ स्वस्यात्मन. परिच्छेदनमवलोकनं तदशन भण्यते ! = तकके अभिप्रायसे सत्तावलोक्नदर्शनका व्याख्यान विया । सिद्रान्तके अभिप्रायसे आगे होनेवाले ज्ञानकी उत्पत्तिके लिए प्रयत्न रूप जो आत्माका अवलोकन वह दर्शन कहलाता हे । द सं दौ.४४।१६२।३ तर्के सुख्यवृत्या परसमयन्याख्यानं स्थूलव्या- ख्यान ** सिद्धान्ते पुन स्वसमयन्याख्यान सुख्यवृत्या सृष््म- व्याख्यानम्‌. ! = तर्के पुख्यतासते अन्यमतौका व्याख्यान होता है । स्थूल अर्थाच त्िस्तृत व्याख्यान होता है। सिद्धान्तमें मुख्यतासे निज समयका व्याख्यान है, सूक्ष्म व्याख्यान है । भ, उस्वगं च अपवाद व्याख्यानर्म अन्तर „ का,।ता, वृ ।१४६।२१२।६ सक्लश्रतघारिणा ध्यान भवतति तदुत्सर्ग- वचन, अपवादव्याख्याने तु पठ्चसमित्तित्रिग्रुप्तिप्रतिपादक श्रु तिपरि- ज्ञानभात्रेणे ब केवलज्ञान जायते। बसच्रवृषभनाराचर्सज्ञप्रथमसहननेन ध्यान भवत्ति तदप्पुत्सर्गवचन अपवादव्याख्यान प्रुनरपूर्वादिगुण- स्थानवर्तिना उपदामश्नपकश्रेण्यो्यच्छुबलध्यान तदपैक्षया स नियम अपूर्वादधस्तनगुणस्थानेपु धर्मध्याने निषेधक न भवति। सकल श्रुतधारियोंको ध्यान होता है यह उत्सर्ग वचन है, अपवाद व्याख्यान- से तो पाच समिति और तीन गुप्तिको प्रतिपादन करनेवाले श्ास्त्रके ज्ञानसे भी केवलज्ञान होता है। -वज्बृषभनाराच नामको प्रथम सहननसे ही ध्यान होता है यह उत्सर्ग वचन है! अपवाद रुप व्याख्यानसे तो अपूर्वादि ग्रुणस्थानवर्त्ती जीवोके उपशम व क्षपक श्रेणीमें जो शुक्लध्यान होता है उसकी अपेक्षा यह नियम है। अपूर्व- करण गुणस्थानसे नीचेके गुणस्थानोमे धर्मध्यानका निषेध नहीं होता है। (द्र, स टी.1४०/२३२/४) । * आगमके घारों अनुयोगोकी कथन पद्धतिर्में अन्तर --दे० अनुयोग/१ 1 শি पद्य-- १, चक्रवर्तीकी नव निधियोमेंसे एक-दे० शलाकापुरुष|३। २ अपरविदेहस्थ एक क्षीत्र-दे० लोक/9७1 ३ कालका एक प्रमाण +दे० गणित/1/१। ४, प्वाँ व्तदेव था। अपरनाम राम था-दे० হাস) ५, ध्वी बलदेव था। अपरनाम ब्त था । -दे° शलाका- पुरुष|३। ६, म, पु,/६६/श्लोक न, पूर्व भव न॑, २ में श्रीपुर नगरके राजा प्रजापाल थे (७3) । फिर अच्युत स्वर्गमें देव हुए (७४)। वर्तमान भवमें धवे चक्रवर्ती हुए। (अपरनाम महापद्म था (ह, पु./२०/१४) । विशेष परिचय--दे० शलाकापुरुप/२ । पद्यक्की ति---.आप एक भट्टारक थे । आपने पाए्व पुराण (अपभ्रद्ध) की रचना की थी । समय--वि, ६६६ ई० १४२ (म, पु |#,/२०/पन्‍नालाल) प्यकूट --? पुं विदेहस्य एक वक्षारगिरि--दे० लोक/७। २ र्व विदेहस्थ पद्मक्ूट वक्षारका एक कूट-दे० लोक/७1 ३ श्रद्धावाद्‌ वक्षारका एक कूट-दे० लोक/७। ४, रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दै० लोक/७ । पद्ययुट्ल--म, पु/६६प्लोक विदेह कषत्रस्य वत्स देशक सुसीमा नगरीके राजा थे (२-३) 1 चन्दन नामक पुत्रको राज्य देकर दीक्षा घारण कर ली (१५-१६) | विपाकसूत्र तक सब अगोका अध्ययन किया तथा चिरकाल तक घोर तपश्चरण कर तोर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश




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