क्रियाकोष | Kriyakosh
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
184
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
महान भक्ति कवि पं दौलत राम का जन्म तत्कालीन जयपुर राज्य के वासवा शहर में हुआ था। कासलीवाल गोत्र के वे खंडेलवाल जैन थे। उनका जन्म का नाम बेगराज था। उनके पिता आनंदराम जयपुर के शासक की एक वरिष्ठ सेवा में थे और उनके निर्देशों के तहत जोधपुर के महाराजा अभय सिंह के साथ दिल्ली में रहते थे। उन्होंने 1735 में समाप्त कर दिया था जबकि पं। दौलत राम 43 वर्ष के थे। अपने पिता के बाद, उनके बड़े भाई निर्भय राम महाराजा अभय सिंह के साथ दिल्ली में रहते थे। उनके दूसरे भाई बख्तावर लाई का कोई विवरण उपलब्ध नहीं है।
पंडितजी के प्रारंभिक जीवन और शिक्षा के स्थान के बारे में कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। दौलत राम। चूंकि उनके प
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रसोई, पंडा भौर चक्की आादिकी क्रियाओका वर्णन | १३
१
মৃত দু चर्मकों, चीरे जो चिडार।
ता चंडालहिं परासिके, छोति गिरने संसार ॥ १७० ॥
तो केसे पावन भयो, मिल्यों चमसों जोहि ।
आमिष तुल्य भभू करै, यादि तजौ बुध सोहि ॥ १७१॥
उपने जीव अपार सुनि, जिनवानी उर धारि।
जा पसुको हे चर्म जो, तेसेही निरधारि-॥ १७२ ॥
सन्मूछेन उपजें जिया, तातें जरू तधृ तेल-।
चर्म सपरसे त्यागिये, भाषें साधु अचेल॥ १७३ ॥
जसे सूरज कांचके, रूई वीचि धरेय ।
भगे अगनि तहां सदी; रूर भस्म करेय ॥ १७४ ॥
तैसे रस अर चर्मके, जोग, जिय उपर्जत ।
खाबेवारेके सकल) धर्मत्रत छुपिजंत ॥ १७५ ॥
जीमत भोजनके विपें, मुवी जिनावर देखि।
तजं नहीं जे असनकों, ते दुरबुद्धि विरेखि ॥ १७६॥
ले वारपाठातनी, फटी खय मतिरीन।
तिनके घट नहिं समुझिे दै, यह भाषे प्रवीन ॥ १७७॥
रसोई, परंडा और चक्की आदिकी क्रियाओंका चर्णन |
। ह चौपई |
जा घर माहिं रसोई होय, धारे चैँदवा उत्तम सोय। |
वहूरि परंडा ऊपर ताणि, उखडी चाकी आदिक जाणि ॥ १७८ ॥
फटकै नाज बीणिये जहां, चून चाखिये भ्या तहां ।
अर जिह ठौरं जीमिये धीर, एनि सोवेफी सहर बीर ॥ १७९ ॥
तथा जहां सामायिक करै, अथवा .श्रीजिनपूजा धर ।
इतने थानक चँदवा दोय, दीखे श्रावकको घर सोय ॥ १८० ॥
चाकी अर उखदी परमाण, हकणां दीने परम सुजाण । `
श्वान विलाव न चारै तारि, तव श्रावकको धर्मं रहाहि ॥ १८१ ॥
मूसछ धोय जतनसों परे, निरि ख़ोटन पीसन नहिं करे ।
छाज तराजू अर चाुणी, चमेतणी भविननं टारणी ॥ १८२॥
निशिकों षीसै खोर दरे, जीवदया कवहू नहं पल ।
चाकी गार चन रहाय; चटी आदि छग तु आय ॥ १८३ ॥
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