वक्तृत्त्वकला के बीज दसवां भाग | Vaktrattvkala Ke Beech Bhag 10

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Vaktrattvkala Ke Beech Bhag 10 by मोतीलाल पारख - Motilal Parakh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बहुश्नुत श्री मधुकर मुनि ज्ञानाजंन से भी अधिक महत्व का कार्य है--ज्ञानदान ! मुनिश्री धनराजजी ने दीर्घकाल तक ज्ञानाजेन कर स्वय का उपकार किया पर अव उस अमूल्य ज्ञाननिधि का सवं सामान्य के लाभार्थं जो वितरण प्रारभ किया है, वह्‌ उनकी महान जनोपकारिता का निद्शंन है । 'वक्‍तृत्व कला के बीज' पुस्तक के € भाग--एक अद्भुत ज्ञान-कोप है । जैसे-जेसे समय बीतेगा, पाठक इनका महत्व समझेगे । और फिर इनके लिए तरसेंगे | असग्रही सतो के लिए भी यह ग्रन्थ सग्रहणीय है । [] महासती उमरावकवर “अर्चना “वकक्‍तृत्वकला के वीज' देखे, वीज मे विशाल वृक्ष लहरा रहा है । ग्रन्थ का एक-एक भाग, एक-एक कोष्ठक ओर उसका एक-एक प्रकरणं अपूर्व दुलंभ सामग्री का समग्रहालय है । प्राचीन जैन साहित्य मे एक कहावत है-'उपोमास्वाति सग्रहीतार ' सग्रह कर्ताओ मे उमास्वाति प्रमृख है, मृनिश्री धनराजजी ने भी आज सग्रह कर्ताभो मे एक नया कीतिमान स्थापित कर दिया है आने वाने कुछ वषं वाद पाठक शायद यह्‌ विश्वास न करेगा कि एक ही व्यक्ति ने इतना विशाल सग्रह केसे कर डाला? गन्यकी उपयोगिता असदिग्च ह 1 3




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