ध्रुव - यात्रा | Durva Yatra

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Durva Yatra by श्री जैनेन्द्र कुमार - Mr. Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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/> भवन्‍्यात्रा ११ “बड़े आदमी बड़ा नाम चाहते हैं| में तो मघु कहती हूँ।” “तो वह भी ढ़ीक है; माधवेन्द्रबह्मदुर खूब है !”” “तुम जानो । मुझे; तो मधु काफी है।”” इस. तरह कुछ बातें हुई ओर बीच ही में ज़रूरत हुई कि दोनों खेल से उठ जाएँ ओर कहीं जाकर आपस की सफाई कर लं । दूर ज्मना किनारे पहुँच कर राजा ने कहा--“अब कहो, मुम क्या कहती हो ¢ “कहती हूँ कि तुम क्यों अपना काम बीच में छोड़ कर आये ९? “मेरा काम क्यों है ९?” “मेरी ओर मेर बच्च की चिन्ता ३रूर तुम्हारा काम- नहीं है। मेने कितनी बार तुम से कहा, तुम ससे स्याद्‌) के लिये हो ।” “उर्मिला, चब भी मुक्से नाराज रहो १ 41. “नहीं, तुम पर गर्वित हूँ |?” “मैने तुम्हारा घर छुड़ाया। सब में रसबा किया । इज्जत ली । तुमको ऊबेला छोड़ दिया। बमिला, मुझे जो कहो थोड़ा। पर अब बताओ, मुमे; क्या करने को कहती हो ? [में तुम्हारा हूँ । न रियासत का हूँ, न भ्रव का हूँ । में बस, तुम्हारा हूँ। अब कहो ।” “देखो राजा, तुम; भूलते हो। गिरिस्ती. फी-सी बात न करो । महाप्राणों की मर्यादा ओर है |! तुम उन्हीं में हो + मेरे! लिये क्या यह्‌ गोरव कम है कि में तुम्हारे पुत्र की माँ हूँ | मुझे दूसरी




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