प्रेमचंद और शरतचन्द्र के उपन्यास | Premchand Aur Sharatchandar Ke Upanyas  

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Premchand Aur Sharatchandar Ke Upanyas   by मनोरमा - Manorama

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न्दर द का धशटि+ * ६ ॥ । = 4 ৯... 8 स कर शग 7 प, दोव, पर्त गमत दर गप र द, न्न ह म दद यमारे 1 जस धमान वर॑ प्रेम निकः ধুর है, «| दन. शाप झपत कर दिचार-दिदए उठा हैं और वही पर आया हूँ हम, আ্পলজাশ্লাল টাক क হি হাক दार $ नरस्य द = नर जय দলা হী আািঙ্গা रिया है। प्रेमचनद्र का दिचार है [6 _ উল কা লালা श+र थे ममी सस्वनौ मे पतित और घेष्ठ है হাল্নলি ন লবঙ্গ द्रम श एत्दञा और मह़ातता का बरत इरो हुए एिया है-- प्रेम की परविधता হা ছে ভা অঙ্গজ भी দলা হা इतिहास है, उसका আতা উ । অলী उसके জাল টিং শা তোলাঙ্ািরা আল ₹ 0৮ তে আয হয হালে ने पवित्र प्रेम খা ক্রিক লক শালা তাজ तिमी ममयं यर सरी मानं मफपी कि परत्र प्रेम रद मित्र नहीं তি) प्रेमचद और शरतचर्द दोनों उपन्यासवारों ने प्रेम में अतृप्ति वा सेल जिया है । दोनों बथावारों का विचार है हि प्रेम से तृप्ति सम्भव ही नहीं। प्रेमचर्द ने अपने दृष्टिकोण बी रपट बरते हुए लिखा है-- प्रेम वह प्याज्ा नहीं है जिसमे आदमी छक जाए, उसतो मचा सदैव बनी रहती है । शरतचस्द के अधिकाद पात्र प्रेम में अतृप्ति ধা भधोधणा बरते है । 'अचटा' (गृरदाह), 'देवदास', पार्वती' (देवदास), किरणमयी' (धरिव़ीन) आदि पात्रों में हरतचद् के इस दृष्टिकोण को देखा जा सकता है। ब्रेभभन्द, प्रेम में उत्ग्ग हो जाने की भावना के समर्थक हैं | इस वारण प्रेमचन्द के उपन्यासों में प्रेम उन्‍नयन थी ओर उस्मुस अवित हुआ है। प्रेमचन्द सयम और भर्यादा के प्रवठ सम्व हैं । प्रेमचन्द के पात्र प्रेम में उत्साह तो प्रदर्शित करते हैं क््ति उन्माद वी अवम्या सत्र नहीं पहुँच पाते । प्रेमचन्द सम्भवत इसे ठीक नही समझते । शारनचद्द्र भी प्रेम में मर्यादा के समर्थक हैं। अपने दृष्टिकोण को अपने एक पात्र मे दारतचन्द्र नै स्पष्ट करे हृष्‌ लिखा है--- समाज में जिसे ब्रौरव प्रदान नहीं किया जा सदता उसे वेवल प्रेम के द्वारा सुखी नहीं किया जा सकता | मर्यादाहीन प्रेम कया भार शिविल होते ही दुस्सह हो जाता है । प्रेम में शरतचन्द्र मर्यादा और सयम के सम्यक अवदय हैं कितु उनके अनुसार सयम और मर्पादा क्षब्दी को वडा कहकर अति- रजित कर डाटा गेया है । अत शरतचनदर वास्तविकता के पक्षपाती हँ तथाहूदयकी सुमधुर भावना का ममर्यन ही उनदी इृतियों से हुआ है । इसी से शरतचन्द्र का विचार है कि “स्नेह की गहराई समय की स्वल्पता से हरगिज नही नापी जा सकती ।”” * तथा प्रेम मे यदि जिसी कारण किसी समय अन्तर भी पड जाय तो उसमे परिवर्तन क्या जा सकता है--/एक दिन जिससे प्रेम क्रिया है फिर किसी दिन किसी भी कारण उसमें किसी परिवरतेन का अवकाद नहीं हो सकता, मन का यह अचल अडिग धर्म न तो ना ज हा




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