विश्वामित्र और दो भाव - नाट्य | Vishwamitra Aur Do Bhav Natya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
179
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ६ )
मुझ ने नर से कोई भी कुछ काम हैं
जाओ, उस तुम दोनो ही झति दूर ह।
जाओ, ज्रौ म कुछ दुन पाती नही)
एस प्रकार सपं चलता है 1 मेनका जेसे-जैसे उससे दूर होती जाती
हे श्रोर विश्यामित्र में भी अदृभाव घटता जाता है। इस प्रकार ग्रहुकार
निब्ज़कर मानव का वास्तविक झरप विदवामित्र मे प्रकट होता ह । वहं
নিন होकर बेचेन हौ जाते हे श्रौर कहते है--
अरे प्राय की निखिल ज्यीत्ति करिपत हुई ।
रोभ रोम में विस्मृति फी लहरं उठी!
स्मृतियों पर चित्रित करतीं सी राग को
धोर नशे सी भू रही हो नेत्र में।
प्राण दत-शत नेत्रो से तुम्हारी मजु मनोरम-मूति तर, किसलय,
मकख्द, प्रलि-गुजन, पवन-प्रसर श्रो, चन्द्र-तारक हास सभी मे देख रहे
ह ।
तुम बाहर नही हो, हृदय में छिप रही हो, प्ररे पिये | तुम झॉसो
में ही क्यो कूम रही हो | पश्रॉलो मे छिपी हुई को पकडने के लिए
विधाता ने हाथ भी नही दिये । में तापरा, छि में तापस नहीं में रसिक,
रसिकवर हैँ. यहु क्या हृदय कोपिता द्र, धडकन उडती जा रही
मेरा जीवन मृत-सा होगया आशाए जल उठी, रोम भी जले हैँ, कुछ
भी कोई नही विरह है शोर श्राग ही सर्वत्र है
सवते तुम्ही दिखाई देती हो गुलाब का हास तुम्ही । रत्तदल
तुम्हे खोजने के हेतु शत प्रथं विये देख र्हा ह 1 मेरा रोम-रोम वाणी वेत
गया है । और तुम्हे विश्व में पुकार रहे हैं। नहीं मिलोगी --
फिर जीवन में साथ भ्रव तो मुल्यं समस्त श्वास की साध है।
यह कहकर विश्वामित्र एक शिला-खड से गिरन लगते है, भेतका बीच मे
हाथ पकंडकर रोक लेती हे ओर कहती है--
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