विश्वामित्र और दो भाव - नाट्य | Vishwamitra Aur Do Bhav Natya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६ ) मुझ ने नर से कोई भी कुछ काम हैं जाओ, उस तुम दोनो ही झति दूर ह। जाओ, ज्रौ म कुछ दुन पाती नही) एस प्रकार सपं चलता है 1 मेनका जेसे-जैसे उससे दूर होती जाती हे श्रोर विश्यामित्र में भी अदृभाव घटता जाता है। इस प्रकार ग्रहुकार निब्ज़कर मानव का वास्तविक झरप विदवामित्र मे प्रकट होता ह । वहं নিন होकर बेचेन हौ जाते हे श्रौर कहते है-- अरे प्राय की निखिल ज्यीत्ति करिपत हुई । रोभ रोम में विस्मृति फी लहरं उठी! स्मृतियों पर चित्रित करतीं सी राग को धोर नशे सी भू रही हो नेत्र में। प्राण दत-शत नेत्रो से तुम्हारी मजु मनोरम-मूति तर, किसलय, मकख्द, प्रलि-गुजन, पवन-प्रसर श्रो, चन्द्र-तारक हास सभी मे देख रहे ह । तुम बाहर नही हो, हृदय में छिप रही हो, प्ररे पिये | तुम झॉसो में ही क्यो कूम रही हो | पश्रॉलो मे छिपी हुई को पकडने के लिए विधाता ने हाथ भी नही दिये । में तापरा, छि में तापस नहीं में रसिक, रसिकवर हैँ. यहु क्या हृदय कोपिता द्र, धडकन उडती जा रही मेरा जीवन मृत-सा होगया आशाए जल उठी, रोम भी जले हैँ, कुछ भी कोई नही विरह है शोर श्राग ही सर्वत्र है सवते तुम्ही दिखाई देती हो गुलाब का हास तुम्ही । रत्तदल तुम्हे खोजने के हेतु शत प्रथं विये देख र्हा ह 1 मेरा रोम-रोम वाणी वेत गया है । और तुम्हे विश्व में पुकार रहे हैं। नहीं मिलोगी -- फिर जीवन में साथ भ्रव तो मुल्यं समस्त श्वास की साध है। यह कहकर विश्वामित्र एक शिला-खड से गिरन लगते है, भेतका बीच मे हाथ पकंडकर रोक लेती हे ओर कहती है--




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