स्वर्गीय जीवन | Swargiya Jeevan

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Swargiya Jeevan by हरिदास - Haridas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ्रध्याय । श् ही न मन न लि नि सिच्च नहीं 'दोतो कि, मनुष्य जितनाछो इस परसातमः-ओवनको आर भुकता है उतना हो वच् परसात्स-जोवनके नजदीक श्राता जाता है भ्रौर नजदीक श्राता जाता है उतनीही परसाव्साकी शक्तियाँ उसमें प्रकट खगतो डैं। जब ईश्लरोय शक्तियाँ श्रसोम भर अनन्त हैं, तो इसका श्रलुभव करनेमें मनुष्य को जो विध्व जान पड़ता है उस विन्नका पैदा करनेवाला भी व! खर्य॑ है, द्योंकि ऊपर कहे इए सत्यका उसे ज्ञान नदीं है । प्ले सतपर विचार कोजिये। अगर परसात्मा सबके पीछे रता इश्ना अनन्तलोवनवाली श्रात्मा दो कि, जिसमेंसे सब उत्पन्न हो सकते हैं ; तो फिर इमारा व्यक्तिगत जीवन इस अनन्त जोवनसेंसे दिव्य प्रवाह दारा निरन्तर बा करता है। यदि दम दूसरे भतके श्रलुसार विचार कारें और यह सानें कि; इमारी व्यक्तिगत श्रात्मा इसे परमात्साका अंशर्प है, तो फिर चमारा व्यक्तिगत रूपमें प्रवांट जोवन श्रपने खूल श्रनन्तजोवनके सद्दथ छोगा। जैसे ससुद्रसे निकाला हुमा जल विन्दु-खरूपमें और लचयणमें अपने स्ूल ससुद्रके ऐसा झछोता है, वेसादी डाल इमारे व्यक्तिगत जोवन श्रौर अनन्त- जोवनके विषय समभ्कना चाहिये । इस स्थानपर सूल होना सम्धव है। यद्यपि परमात्म-औवन चर व्यक्तिगत जोवन स्वरूप यकसाँ है, तथापि अनन्त-जोदन व्यक्तिगत जीवन से इतना उत्क,छ है कि, उसमें सबका समावेश हो लाता है)




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