आधुनिक कवित की भाषा | Adhunik Kavita Ki Bhasha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्री सैधिलीशरण जी गुप्त का “साकेत २७७ उत्पात” इत्यादि की ओर इंगित करता है। बोध ऐसा होता है कि 'मसानसरोबर के तीर पर सहसीों मनुष्यों की भीड़ है--दौड हो रही दै,-- हो हो” की चिल्माहद और भारी कर्त्त ध्वनि से घबरा कर कार्तिकेयजी कहते है कि “हे अम्ब देखो तो कितना ऊबम हो रहा है, गणोश जी कितना ऊधम मचा रहे हैं? परन्तु कवित्त पढ जाने पर पता चल्ता है कि कोई ऊधम नहीं है. बहा तो दो भाइयों को छोडकर कोई भी तीसरा व्यक्ति उपस्थित तक नहीं है। बहाँ पण शान्ति का साम्राज्य है। गणेशजी मोदक र्खे हुए बेठे है कार्तिकेयजी को देने को सूंड से उठाकर दिखाते हैं, परन्तु देते नहीं | ऊपर ही उछाल कर स्वयं खा जाते हैं। सिवाय इस बात के और कोर शिकायत नही है। अगर कार्तिकेयजी स्वय मचल्तते हों या ताली पीठ कर चिल्लाते हों तो वूसरी बात है परन्तु बहा तीसरा फोई व्यक्ति ताल्ली पीटने बाक्ना भी नहीं ऐसी परि- स्थिति मे “गणेशजी के ऊषम मचाने”? की शिकायत सही नहीं है ओर न (उधम मचाने! के शब्द ही उपयुक्त स्थान पर प्रयोग किए गए हैं । कषि का आंशय यह भी है कि एक-एक मोदक ऊपर उछालते जाते एव स्वयं खाते जाते है परन्तु शख्दों में ऐसा साव कफिचित्‌ मात्र व्यक्त नहीं हो पाया । “ऊपर ही मेलकर, खेलकर खाते है” थे भंगल्लाचरण के अतिम शब्द दं “भेलः शब्द्‌ में कुछ कठिनाई बोध हो रही है. | कवि का आशय तो यह है कि ऊपर एछात्लकर ऊपर ही खा जाते है । उद्ाला नदीं कि खाया नहीं ॥ शीघ्रातिशीघ्र खा जाते हैं! 'खाते हैं? ओर 'शीघ्र खा जाते हैं? में भेद है। अंतिम शब्द भाव को उपयुक्त रूप से व्यक्त कर सकते थे। 'भेशकर खेलकर खाते हैं! मे खाने में नतित ती




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