गोवर्धनाचार्य की आर्यासप्तशती का आलोचनात्मक अध्ययन | Govardhanacharya Ki Aaryasaptashati Ka Alochnatmak Adhyayn

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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करी सुनाभः को हौ अन्तः प्रमाण का आधार माना णाता है। इसके विपरीत बाह्य प्रमाण के अन्तगत उन तथ्यों का संग्रह ककया जाता है णो कीव के युग ठी अम्यकृौतियों : मैं उील्लीयत होते है। বগল अत्तु; आवारय गोषधेन के काल-निभ्य हेतु उप्ैक्त दिविध प्रमाणो का आश्रय तेना प्रेष्णा होगा। सवप्रथम अन्तरहण प्रमाण को स्पष्ट करना है- अन्त: प्रमाण गो वधनावाये ने ग्रन्थारम्म ्रन्या भे र्स्कृतवाहूमय के अनेक महाकीवयोः की परम श्रद्या के ताथ त्वीव की हा इसक़म में सपेप्रधम आगदकीपं वाल्मीकी | ) प्यास + 3 4 5 ৬.6 दहत्फधाकारं गुणाद्रय , महाकोप कालदास + महाक भकपरीति , पहाकीव আযান फी सतत की है। | 1वीहतधपनालंकरं पवित्रां वतीमयस्य्छुरणम्‌ | ष्रायुधीमव कक वल्मीक्मृवं कविं नौमि || পান] ও] || 2० व्यात्ीगरां मेनया सारं गवव भारतें बन्दे । भृषणतवैव संज्ञा यदह्क्तां भारती पहात: ।। आ ६० उ। ।। 3. अतदीधनी वदरो ष्राद्रयासेन यो ऽपहाररतं हन्तः । कैन च्यते गुणादयः घ एव नन्मातरापन्नः 11 আআ] জট হি || 4९ ताकूतमधरको मती वला तिनी कण्ठकृणित्रा ये | पिक्षासम्येऽभेप यदे रहलीलाकालिदासोक्ति: ॥। आ0 स0 35 ।। 5° मकुते: सम्बन्धादभूधरभ्रेव भारती मात । एतत्कृतकाल्ण्ये क्मन्यधा रोदति ग्रावा ।। आ0 प्र 56 || 8* जाताप्िछणण्डनी प्रा ग्यधा शष्कण्डी तथावगच्छाम। पञल्म्यमाधकमा तं पाणी बाणो वभूत || গা ० 37 1|




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