पृथ्वी पुत्र | Prithavi Putra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6.46 MB
कुल पष्ठ :
246
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मं प्रथिवी-पुत्र
हमारे नेत्रा का तेज सी वर्ष तक बढ़ता रहे, अर उसके लिए हमे सूर्य की
मित्रता प्राप्त हो ( ३३ ) ।
चारो दिशाश्रों में प्रकाशित माठृभूमि के चतुरखशोभी शरीर को जाकर
केवने के लिए हमारे पेरा में सचरणशीलता होनी चाहिए । चलने से हो
हम दिशात्रों के कल्याण! तक पहुंचते हैं (स्योनास्ता महा चरते भबन्तु;
देश) । जिस प्रदेश में जनता की पदपक्ति पहुंचती है, वह्दी तीर्थ बन जाता
है । पद-पक्तियों के द्वारा हो माठृभूमि के विशाल जनायन पथ का निर्माण
होता है, श्र।र यात्रा के बल से दो रथो के वर्त्मं शरीर शकटों के मार्ग सूमि
पर निछते हैं (ये ते पथा बहवों जनायना रथस्य वर्त्सानसश्च यातवे; ४७) ।
चक्रमण के प्रताप से पूर्व ऋ्रे।र पश्चिम में तथा उत्तर श्रौर दक्षिण मे पथ का
नाड़ी-जाल फेल जाता है । पव॑त। श्रेर मद्दाकातारा को दूमियाँ युवकों के
पद्-सचार से परिचित होकर सशोभित होती हैं। “चारिक चरित्वा” का त्रत
घारण करने वाले चरक-स्नातक पुरा आ्रोर जनपदा में शान-मगल करते हैं
तर माठृमूमि को समग्र शोना का आविष्कार करते हैं ।
आरमिक भू-प्रतिष्ठा के दिन हमारे पूर्वजों ने माठ्यूमि के स्वरूप का
घनिष़ परिचय प्राप्त किया था । उसके उन्नत प्रदेश, निरतर बहने वाली
जल-घाराए श्रार हरे-भरे समतल मेंदान--इन्दाने श्रपनी रूप-सपदा से
उनको आआकृष्ट किया (यम्या उद्दत प्रवत सम बहु; रे) । छोटे गिरि-
जाल श्र,र हिमराशि का श्वेतमूकुट बावे हुए महान् पर्वत परथिवी को टेक
खड़े हैं। उफके ऊ चे श्र्ठां पर शिल,शूत हिम, अवित्यकाश्र। में सरकते
हुए हिमश्रथ या अर्फानी गल, उनके सुग्व या बाक से निकलने वालों नदिया
झार तटात म बहने वाला सह घाराए, पर्वत-स्थली श्रार द्रोणो, निर्भर
श्रेतर करूलतो हुई नदी की तलहटिया, शेला के दारण से बनी हुई दरी श्रोर
कदराए; पर्वत, के पार जाने वालें जोत अं,र घाटे--इन सबका श्रध्ययन
मेमिक चेतन्य का एक झ्ावश्यक झग है । संँ,माग्य से विश्वकर्मा ने जिस
दिन श्रषनो दृवि से हमारी भूमि की श्राराघना को उस दिन ही उसमे पर्वतीय
झश पर्याप्त माता में रख दिया था | थूमि का तिलक करने के लिए मानो
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