कब्रों की दुनिया में | Kabron Ki Duniya Mein

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Kabron Ki Duniya Mein by शम्भुनाथ सक्सेना - Shambhunath Saxena

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पाल्ती [ क्त्रों की दुनिया में था । पाली की याद मुझे बुरी तरह सताती थी । लेकिन जिस समाज में में पला था--जिस उच्च अर्थिक-स्तर के वातावरण में मेरी शिक्षा हुई थी ओर जिस संन्कृति की मेरी मनोद्ृति पर তান আসক্তির হী বাই थी, इनने मुझे पाली के विषय में एक शब्द भी बोलने से मजबूर कर दिया था | भाई प्रभानाथ, आज की परिस्थिति में में सोचता हूँ कि यह आर्थिक वर्गोकरणु जिसके आधार पर हमारे समाज और राजनीति की आधार- शिलाएं टिकी हुई हैं, कब सनूल धरातल में धसक कर लोप हो जायेगी | आज हमारा धमम, हमारी संस्कृति, हमारे सोचने को गति सभी दूषित हो गई हू | ऐसा ज्गता है कि यह ऊँच-नीच और हमारे धर्म की व्यवस्था में अब कही ऐसा जबरदस्त विस्फोट हाने वाला है जिसके भग्नावशेष के नीचे हमारी कल् की और आज की परम्पराये दब जायेंगी--नष्ट हो जायंगी | में आपसे सही कइता हूं, आगे आने वाली पीढ़ी इन आवश्यक बोकों को और अधिक नहीं ढोंयेगी | पाली से में प्रेम करता था--पाली मेरे जीवन की आवश्यकता थी लेकिन इस सत्य को में न तो फ्िसी से कह सका और न इस सत्य की अपने अन्दर वाले व्यक्ति के सामने अवहेलना कर सका। किन्तु इससे क्या ! इसमें दोष मेरा हं--दोप उस मनोबृत्ति का है जिसका पोषण ` समाज के सकरे दायरे में हुआ | एक दिन मेरे नौकर ने मेरी तबत्रियत अच्छी देखकर कहा-- छुटका भय्या, जब से तुम बीमार पड़े हो रोज एक लड़की बंगले पर आकर तुमसे मिलने को हठ करती थी | गए मझ्नल को बड़ी उदास होकर बोल--- बावा, एक बार उनसे कह दो कि पाली मिलने आई है लेकिन उस दिन माल्फिन ओर वाबूजी तुम्हारे पास थे मैं न कह पाया | मेंने उत्मुक होकर पूछा-- बारह |




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