सभ्यता की देन | Sabhyata Ki Den
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
157
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. लक्ष्मी नारायण - Dr. Lakshmi Narayan
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सम्यता की देने ०५
पहुँचे | हम लोगों का कमरा पहिले से ही रिवः था । कमरे के
न्दर दाखिल दए; देखा सामान हम लेया के पटले दी वरहा उपस्थित
' है | बडा आश्वर्य लगा. शंकरसिंह सचमुच ही गजब का आदमी
है | ऐसे आदमी ही तकदीर को बदल देते दे |
कमरे की प्रत्येक वस्तु क्रा उसने ज्ञान कराया । बताया, यह स्पिगकाट
है | चलती भी है | बदि तुम यहाँ सा रहे हो ओर यहाँ गर्मी के कारण
सोना नहीं चाहते ओर बिजली के पंखे की हवा तुम्हें पसन््द नहीं, इस बदन
না হার হী, 'काट' स्वयं बाहर निकल जायगी--तुम्हें लिये | ये गर्मा ओर
ठंडक पैदा करने के यन्त्र हैं | इस बत्ती का उपयोग पढ़ने के लिए किया
जाता है । इसी प्रकार वह कहता रह्य और में सुनता रहा ।
संध्या समव वह बोला---अआज हम लोग की बैठक है| चलेंगे |”
हम लोग तैयार हुए । एक क्लब में जा पहुँचे। मैंने यह भी अनु-
भव किया, जानबूककर शंकरसिंह मुझे कुछ नियत समय के पश्चात् ले
गया था | सभी लोग मेरे श्रागमन की उत्सुकता से प्रतीच्छ कर रहे थे!
हमलोगों के अचानक पहुँचते ही सभी खड़े हो गये। में आवश्यकता से
अधिक गम्भीर था | शंकरसिंह ने तेजी से मेरा सबसे परिचय कराया
ओर विलम्ब से पहुँचने का कारण बताया---'जागीरदार साहब की आने
की इच्छा न थी, परन्तु जवं मैने उन्हें 'इंगेजमेए्ट' की याद दिलायी লী
तैयार होना पड़ा; कुछ हल्का-सा जुकाम है ।!
हम लोग जम गये । ताश के पत्ते नाचने लगे । पेग दोड़ने लगे
ओर सिगार-सिगरेट के धुएँ ने क्लब के वातावरण को कडुआहट से भर
दिया । लेकिन में विवश था | जब शंंकरसिंह के दाय म पत्तं आये
तो उसने मुझे अपनी उ गली से ज्यादा से ज्यादा रकम लगाने का संकेत
किया | मैने उसका श्राशय सम लिया ।
खेल चलता रहा ओर अन्त में जब शो? हुआ, तो उस दिन लाखों
के नोट हमारे सामने बरस गये। सभी कह उठे--बस, खेल हो चुका +`
User Reviews
No Reviews | Add Yours...