गद्य माधुरी | Gadya Madhuri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना হ ( २ ) क्लोक-प्रिय रचनाएं ---इनके रचयिता ढाढी-ढोली श्रादि जातियाँ होती थीं, जिनका व्यवसाय जनता को गा-बजाकर रिम्माने का था। ये साधारण बोलचाल की भाषा में बनाई जाती थीं | ( २ ) जेन-धमं सम्बन्धी--इनके रचयिता जेन-साधु होते थे । इन की भाषा पर अ्रपश्रश का प्रभाव विशेष पाया जाता है | प्रथम दोनों प्रकार की रचनाएँ मुख्यतया मौखिक ही रहती थीं, जिससे उनका रूप धोरे-घीरे बदलता जाता था। इस समय उनका तत्कालीन रूप में प्राप्त होना असम्भव-सा है। जेन-लेखकों को रचनाएँ मुख्यकर के लिखित होती थों और आज भी उनमें से बहुत-सी उपलब्ध हैं। इनमें अनेकों गद्य में हैं । एकाघ उदाहरण आगे दिये जाते हैं। इस काल के हिन्दी-गद्य के उदाहरण प्रायः नहीं मिलते, परन्तु सच पूछा जाथ तो एतत्कालीन साहित्य की श्रभी पर्याप्त खोज हुई द्वी नहीं । साहित्यिक कृतियों के अतिरिक्त इस काल के अनेक शिलालेख भी राज- स्थान में स्थान-स्थान पर मिलते हैं, जिनमें से कई एक तत्कालीन बोल- चाल की भाषा में लिखे गये हैं । स्वर्गीय मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या ने कई पट्टे-परवाने प्रकाशित करवाये थे, जिन्हें वे पृथ्वीराज चोहान के समय के मानते थे । कई श्रन्यान्य विद्वान भी उनसे सहमत हैं श्रोर वे इन परवानों की भाषा को हिन्दी- गद्य के सर्वप्रथम उदाहरण मानते हैं । परन्तु उनकी प्रामाणिकता में पूरा सन्देह ह । उनकी भाषा ही स्पष्ट कह रषौ है कि वह उस काल की नहीं । गौरीशङ्कर हीराचन्द श्रोरा श्रादि श्रनेक इतिहासन्ञ उन्हे जाली समते हैं। जाली न भी हों तो भी इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे बहुत बाद के हैं। उनकी भाष। ओर लिपि-पद्धति बहुत प्राचीन नहीं ।




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