हमारे साहित्य में हास्य रास | Hamare Sahitya Me Hasya Ras

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मगर पदिले कुछ कीजिये तो अर श्याप भाग कर जायेंगे किस राह ? अभी तो बहुत सी रा ऐसी पड़ी हैं जिनको आपने देख भी नहीं । पढ़िले इन सूनी राहों का हाल तो सुन लीजिये । ब्याप कहते दरों कि यह अच्छा पीछे लग गया मगर मैं स्वयं इन राहों की छोर संकेत करके चुप हो ज्ञाऊँगा । ऐ खफा हो गये झाप ? सुनिए भाषा के सम्बन्ध सें कर मैंने ब्यथ ही चापका अर. अपना समय नष्ट किया । भाषा हो स्वयं बहीं बनेगी जो मैं कह घुका हूँ । इसके वेग को तो आप रोक नहीं सकते यह आपके बसकी दात ही नहीं । आप बर्फ पर केसर बोना भी चाहें. दो बेकार । उस के लिये उपयुक्त उबेरा भूमि भी तो चाहिये । रहा यह कि मैंने .खुशामद क्यों की ? तो यह मेरी त्ादृत है मेरा स्वभाव है । स मभ्े ञाप ? चलिये आप प्रसन्न तो हुये । इसरा देश भारतवष संदव सेही धर्स प्रधान देश रहा है इससे मेरा यह अथ है कि यहां दर चीज़ और हर काम पर धर्म की छाप रहती है । धर्सालुसार ही सब काम प्राचीन साहित्य में होंगे इसलिये जब खाने पीने में घर्म घुस गया हास्य रस. तो दूघ और पानी तक पवि अपधित्र हिन्दू मुसलमान या छूत अछूत बनरंए । फिर बिचारी लजित कलायें बंचकर कहां जा सकती थीं । चित्र कला में केवल देवी देवताओं या अवतारां के चिज् हो सकते थे छोर मूर्तिक ला में देवताओं की मूर्तियां होती थों जिसका प्रभाव यह पड़ा कि इस समय भी कोई शिक्षित हिन्दू-ऊुच शिक्षित भी-किसी मूर्ति के सामने देंडवत किये या सर टेके बिना नहीं जा सकता चाहे चह् मूर्ति किसी राक्षस ही की क्यों न हो क्ये कि यहां तो स्वभाव बने गया है और श्रद्धा भी हे कि मूर्ति में कोई देवता ६१९ जे




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