मोह त्याग | Moh Tyaag

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ जिलिर कुमार कमी बने हए थे। यों तो उन्होंने पूरी भूमि पर एक व्यव- स्थित कृषि-संस्थान बना लिया था; पर इस समय वे अपने क्षेत्र के एक विधावक भी ये। परिवार की स्थावर सम्पत्ति में तो कोई विभाजन न हुआ था; लेकिन एक बात में शिशिर प्रतिज्ञाबद्ध थे कि दस सहस्र रुपये तक आवश्यकता पड़ने पर वे कभी भी दे सकते थे । इसमें इनकार करने का प्रश्न नहीं उठता था । हेमन्त जाब के समक्ष इस प्रकार की आवश्यकता पड़ने का अवसर ही भला क्यो काता, जबकि उनकी एक निश्चित आय थी | लेकिन शिक्षिर बाबू को फसल खराब हो जाने पर कभी जो आवश्यकता पड़ती भी, तो वे हेमन्त बाबू से कुछ माँगते न थे । यह बात बहुत दिनों तक उन्हें विदित न हो पायी थी | पर काला- न्तर में शिशिर बाबू के जीवन का यह गोपनीय प्रसंग जब उन्होने जान लिया, तब से पारिवारिक संघर्ष के आथिक पहलु को वे व्यक्तिगत जीवन में बड़ा महत्त्व देने लगे थे। एक गाध बार नमिता से उन्होने इस प्रसंग में कहा मी था--“ददा ने मुझको बहुत गलत समझ लिया है ।” वस्तु, नमिता ने उनके चाय का कप पूरा करते हुए जो उपर्युक्त सुचना दी, तो उनका भाथा ठनका भौर सहसा उनके मरह से निकल बया, “में सोचता हूँ, क्यो न दद्दा को पत्र लिख कर एक-आष दिन के लिए बुला तु 2? . नमिता बोली--“जरूर पत्र लिख दो। बल्कि अच्छा हो कि जींजी को थी खव लेते वाये । हेमन्त ने. इस विषयमे तो फिर कू न कहा, कर ननिता को सुचना के सम्बन्ध में उन्होंने कह दिया---“वासुदेव बाबू तो बहुत सुलझे हुए बादमी हैं। मेरा उनके सम्बन्ध में अब तक यही विचार रहा है कि वे कमी किसी संघर्ष में पड़ ही नहीं सकते ।” नमिता को वासुदेव बाबू की साधु प्रकृति बहुत अच्छी लगती थी। कमौ-कमी तो उसके मंत्र में आता--.वें आदमी नहीं, देवता हैं । कावेरी शरास्तव में बड़ी माम्यशालिनी है प्र फिर जो उसको उनकी आर्थिक स्थिति का ध्यान हो आया तो वे सोचने लगीं कि बिचारे बड़े संकट में रहते हैं; पर. इस विधव ये अपना तो कोई वश: है नहीं। -




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