बापू की सीख | Bapu Ki Sikh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
98
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१२ बापु को सोख
देने का उन्हे लोभ था । संस्कृत ग्रौरफारसी केदरजेभे
एक प्रकार की होड-सी थी । फारसी के मौलवी-
साहब नरम थे। विद्यार्थी आपस में बातें करते कि
फारसी तो बहुत सरल है और फारसी के अध्यापक
भी बड़े सज्जन हैं। विद्यार्थी जितना काम कर लाते
हैं, उतने से ही वह निभा लेते हैं। सहज होने को
बात से में भी ललचाया ओर एक दिन फारसी के
दरजे में जाकर वेठा । सस्कृत-शिक्षक को इसमे दुःख
हुआ और उन्होंने मुझे बुलाकर कहा, “तुम सोचो
तो कि तुम किसके सड़के हो ? अपने धर्म की भाषा
नहीं सीखोगे ? अपनी कठिनाई मुझे बताओ्रो। मेरी
तो इच्छा रहती है किसब विद्यार्थी अ्रच्छी संस्कृत
सीखें। आगे चलकर उसमें रस-ही-रस है। तुमको
इस तरह निराश न होना चाहिए। तुम फिर मेरे दरजे
में आओ ।
में शरमाया। शिक्षक के प्रेम की अवहेलना न कर
सका। आज मेरी आत्मा कृष्णशंकर पण्ड्याकी कृतज्ञ
हैं; क्योंकि जितनी संस्कृत मेंने उस समय पढ़ी थो,
यदि उतनी भीन पढ़ी होती तो आज में संस्कृत-
शास्त्रों का जो रसास्वादन कर पाता हूं वह न कर
पाता ; बल्कि श्रधिके सस्त न पढ़ सका, इसका
पछतावा होता है; क्योंकि आगे चलकर मैंने समभा
कि किसी भी हिदू-बालक को संस्कृत के अध्ययन से
वंचित नहीं रहना चाहिए।
ग्रब तो में यह मानता हूं कि भारतवर्ष के उच्च
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