आदमी और सिक्के | Aadmi Aur Sikke

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Aadmi Aur Sikke by महेंद्र नाथ - Mahendra Nath

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(फिर केसे १? “व्यापार करने गया था ।” “कुछु कमाकर जल्लाए 1 “कुछ नहीं । रुपये कमाए और वहीं उड़ा डाले । केवल कुछ यादं अपने साथ लाया हैँ और उनमें से एक तुम्हारे सामने रखी तुम्हें देख रही हे । हिन्दुस्तान से निकलकर मनुष्य बहुत-कुछ सीख सकता है । यों तो सारे संसार की सेर करनी चाहिए और विभिन्न देशों में जाकर विभिन्न प्रकार के ल्लोगों से मिलना चाहिए । परन्तु ईरान ओर फिलन- स्तीन तो बहुत अच्छी जगहें हें--सुन्दर स्त्रियाँ और उत्तम शराब ओर लोग शरीफ़ और मिलनसार | वे दिन बहुत अच्छे थे; जेब में रुपये, जीवन में खुशी थी, उल्_लाल था, जो मन आता, करते थे। एक शाम इस लड़की से एक रेस्तरों में मुलाक़ात हो गईं। यह सुमे अपने धर ले गई और अपने माता-पिता से परिचय कराया । उस दिन के बाद हम दोनों मिलते रहे, प्रेम करते रहे । लड़की के मांचा-पिता ने आपत्ति म की कि लड़की का प्रेमी घर पर क्‍यों आता है, लड़की से घरणटों बेठकर बातें क्‍यों करता है। उन्‍हें विश्वास था कि सड़की जवान हो चुकी है, वह कुछ सोच-सममझकर ही कोई काम करेगी और जो कुछ करेगी अपनी भला के क्तिषु करेगी । और इस भ्रकार दिन बीतते रहे, शर्तें तम्बी और कजरारी होती गई', जीवन सुखों और स्वप्नों की 'चित्रावल्ली वल गया । ल्लेकिन युद्ध समाप्त हो गया और मेरा व्यापार ठप हो गया। बता-बनाया ठाठ बिगड़ गया और में निर्धंल होकर ईरान से निकला । “बह लड़की तुम्हारे साथ नहीं आईं ९?” “क्या करती आकर ) मेरे पास फ़ूटी कोड़ी भी नथी। बड़ी कठिनाई से एक परिचित से हिन्दुस्तान आने का किराया लिया और चल दिया ।” “लड़की मिल्लनने आईं थी १” “कराई थी ।” “उसने कुछ कहा 7” ९९




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