संवर्त | Samvartt
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
128
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)५,
शान्ति के समय भी उनका सामाजिक अवबोध निरन्तर जागरूक रहता
भा। बल, यश, पशु, सन्तान, ऐश्वर्य इत्यादि की कामना में सामूहिक
भावना अविछिन्न रूप से पाई जाती हैे। उन दिनों शान का
श्रसुणोद्य-काल था । फलतः प्रकृतिं की विभिन्न शक्त्यो मे देवता की
स्थिति मानी जाती थी और उन शक्तियों की अनुकूलता प्राप्त करने
के लिए प्रकार-विशेष से भजन-पूजन का विधान था| दिशाओं के
ग्रधिषतियों से विभिव्न दिशाओं से झ्रागमनीय संकटो की धारणा
करके श्राय्यगण रक्षा की प्रार्थना किया करते थे। इसके अ्रतिरिक्त
व्यक्तिगत राग-द्वेष फो लेकर भी भावों फी स्फुरणा होने लगी। धीरे-
धीरे अभिचारों ओर प्रयोगों का प्रचलन हुआ और निरन्तर লিজা
से प्राप्ति शान्ति श्रौर निश्चिन््तता के फारण, लोगों की जिज्ञासा,
देवी शक्तियों के समझने की ओर अग्रसर हुई। इसके फलस्वरूप
वहुदेव-चाद, सवंदेव-वाद, एकदेव-वाद और ब्रह्मवाद के विचार
खादित्य श्रौर घर्म॑शाख मँ प्रतिफक्लित हुए। इस प्रफार समाज में
प्रशा-मेद उपस्थित हुआ। समाज के सम्मानपात्र ऋषियों ने
सामाजिक कार्य्यों की सुगमता के लिए वर्णाश्रम-विभाग की स्थापना
की । प्रारम्भ में वर्णां और आश्रमों में स्त्राथ-विरोध और उच्च-नीच
की भावना न थी, परन्तु धीरे-धीरे उन भावनाओं का पूर्णतया
अआधिपत्य ही गया |
वेदों के बाद के साहित्यों में प्रायः अन्त:सघर्ष मिलतां है। इसका
कारण यह है कि आयों के इतरजातीय शन्नु नतशीर््ष॑ होकर उनकी
सेवा-परिचर्य्या करने लग गये थे। श्रार्य्यो का उद्धत श्रहकार
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