जिनखोज तिन पाइयाँ | Jin Khoj Tin Paiyan

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Jin Khoj Tin Paiyan by लक्ष्मीचन्द्र जैन - Laxmichandra jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हृदय-परिवत्त न एक वार रेलके सफरमे हदय-परिवत्तंन सवधी प्रसग, चल निकला तौ एक थानेंदारने अपने जीवनकी एक घटना इस प्रकार सुनाई--- “मेरे पडोसमे एक भिखारी भीख माँग रहा था । पडोसीने दुत्कार दिया तो वह मेरे मकानसे गुजरा । मुझे उसकी हालतपर रहम आ गया । मेने आवाज देते हुए कहा- बाबा ठहरो, खाना भेजता हूँ ।” मगर वह मेरी आवाजको अनसुनी करके बढता गया । मेने समझा उसने सुना नही है । अत चौक रको रोटी दे आने को भेजा । मगर उसने रोटी लेनेसे इनकार कर दिया । नौकरने इसरार किया तो उसने जवाब दिया- जो लोग रिशवत लेते हे, में उनके यहाँका अ्रन्न-जल ग्रहण नही करता । नौकर उसे गालियाँ वकता चला आया और मुझे भी उसके वे जमले सुनाये । में तो सुतकर कट-सा गया । थानेदारकी कोई इस तरह उपेक्षा करे और वह भी दर-दरका भिखारी । मन आत्मग्लानि और क्षोभसे भर-सा गया । रह-रहकर कभी श्रपनेपर, कभी नौकरपर श्रौर कभी उस भिखारीपर, ताव आते लगा । एसे गधको गुलकन्द दिखाया ही क्यो जाय, जो उसे देखकर आँख फोड दी, आँख फोड दी चिल्ला पडे । क्‍या जरूरत थी धन्ना सेठ बनने की, और अगर मुझसे गलती हो भी गई थो तो यह कम्बख्त नौकर उसे रोटी देने चला क्यो गया ? किसी बहाने काममे लग जाता, बात आई-गई हो जाती, और चला भी गया था, तो जो उस दीवानेने कहा, उसे मुझसे कहनेकी क्या जरूरत थी. ? श्रौर उस मंगतेकी शान तो देखो भीखके दूक श्रौर बाज़ारमें उकार 1 इसी रिशवत॒की बदौलत पत्नी वलाएँ लेती है, साहबजादे नवाब वने फिरते है, यारोका जमघटा लगा रहता है, विरादरी और रिक्तेदारियोमे भ १७




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