जैन साहित्यमें विकार | Jain Sahityamein Vikar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
285
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about मुनि श्रीतिलकविजयजी - Muni Shree Tilakvijayji
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand), ( १३ )
न्तवाद की पविन्न सरिता में धोने के लिये करिवद्ध हो जाना
चाहिये । व्यवहार कुशल ब्यापीरनिषुर्ण जैनसमाजंको भविष्य
सँ नेवा ऑपत्तियोके प्रतिकारका अभीसे डपाय कंरलेना
चाहिये । प्रतिवष लाखों रुपया घोर्मिंक भुकदमेबाज़ी में-व्यय
करने वाली मन्दिरोंकी दीवारों पर मनो सोना लिपवाने वाली,
लाखों रुपया रथयात्रामें बदानेवाली और असंख्यधन सुनिव-
शियोंके लिये लुटा देने वाली जैनसमाज ' इकबाल के इस
शेरको विचार पूर्वक पढ़े और समझे ।
अगर अब भी न समभोगे तो मिझ जाओगे डुनियासे ।
तुम्दारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानोंमें ॥
हिन्दी भाषा भाषियों को ऐसी अनुपम पुस्तक पढ़नेका
सौभाग्य प्राप्त होगा, इसके लिये अचुवादक महोदय धन्यवाद
के पात्र हैं ।
पहाड़ीं-धीरज, दिल्ली । |
ज्येष्ठ कृष्णा ४ घी० नि० ल० ८४४८ |
अयोध्याप्रसाद गोयलीय दास”
१ पत्षपात्ो न में चीरे, न द्वेष: कपिलादिपु ।
` युक्तिमद्वयनम् यस्य, तस्यका्थ परिपद्. ॥
--धीदरिभडदष्ठरि ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...