जैन साहित्यमें विकार | Jain Sahityamein Vikar

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Jain Sahityamein Vikar  by मुनि श्रीतिलकविजयजी - Muni Shree Tilakvijayji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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, ( १३ ) न्तवाद की पविन्न सरिता में धोने के लिये करिवद्ध हो जाना चाहिये । व्यवहार कुशल ब्यापीरनिषुर्ण जैनसमाजंको भविष्य सँ नेवा ऑपत्तियोके प्रतिकारका अभीसे डपाय कंरलेना चाहिये । प्रतिवष लाखों रुपया घोर्मिंक भुकदमेबाज़ी में-व्यय करने वाली मन्दिरोंकी दीवारों पर मनो सोना लिपवाने वाली, लाखों रुपया रथयात्रामें बदानेवाली और असंख्यधन सुनिव- शियोंके लिये लुटा देने वाली जैनसमाज ' इकबाल के इस शेरको विचार पूर्वक पढ़े और समझे । अगर अब भी न समभोगे तो मिझ जाओगे डुनियासे । तुम्दारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानोंमें ॥ हिन्दी भाषा भाषियों को ऐसी अनुपम पुस्तक पढ़नेका सौभाग्य प्राप्त होगा, इसके लिये अचुवादक महोदय धन्यवाद के पात्र हैं । पहाड़ीं-धीरज, दिल्‍ली । | ज्येष्ठ कृष्णा ४ घी० नि० ल० ८४४८ | अयोध्याप्रसाद गोयलीय दास” १ पत्षपात्ो न में चीरे, न द्वेष: कपिलादिपु । ` युक्तिमद्वयनम्‌ यस्य, तस्यका्थ परिपद्‌. ॥ --धीदरिभडदष्ठरि ।




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