दो एकांत | Do Ekent
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
175
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ग्रवसर थे । फिर भी एेसा एकान्त था जिसमे अपनी ही पदाहदे भरी हुई
थी । किसी दूसरे के आ जाने पर घर मे चहल-पहल हौ जाया करती
थी । उन आ्रारस्भिक दिनो मे रविवार या किसी भी छुट्टी के दिन दोने।
समुद्र-स्नान के लिए पहुँच जाते। वानीरा बालू मे लेट जाती और
ग्रनाडी ढंग से समुद्र-स्नान करते विवेक को इँसते हुए देखती रहती ।
वानीरा को कभी समुद्र-स्नान म्रच्छा नही लगा । म्रौरते लहरों मे पड-
कर जिस प्रकार परेशान होती है तथा लहरे जिस निमेमता के साथ
उन्हे छितन्न-भिन्न करके उठाकर फक देती है उसमे प्राय स्वियौ उम
वडी निरीह लगती रही है श्रौर अपने को निरीह वहु नही लगने दे
सकती । कई बार विवेक ने आग्रह किया पर वह नहीं गयी । विवेक
जब कभी ज्यादा परेशान होता कि अभी एक लहर से बचकर वह
खड़ा हुआ ही कि दूसरी ने आकर बडी निर्ममता से उसे दबोच लिया
तो जाने क्यों भय या शंका के बजाय वह बिल्कुल बच्चों की तरह
तालियाँ बजाने लगती । कई बार स्वय उसे अपनी ही बात की असगति
अनुभव होती और वह आप ही खिन्न हो जाती । प्राय ऐसे ही समय
विवेक शैतान बच्चों की तरह किलकारी मारते हुए वानीरा की ओर
भपटता होता । कालि बालों वाली उसकी पृष्ट देह की भ्रोर उसकी
टकटकी बँध जाती । तभी विवेक उसे बालू पर लगभग घसीटता होता
और वह् किचित भरुभलाते बरजती होतो,
-- अरे हाथ छोड़ो । छि'-छि:, यह क्या करते हो ? कोई देखे तो
क्या कहे ?
-- तो तुम हँस क्यों रही थी ?
“- बैवकूफों की तरह समुद्र-स्नान करते देख किसी को भी हंसी ग्रा
सकती है।
-- जानती हो, समुद्र-स्नान से स्वास्थ्य ठीक रहता है ।
-- भले ही कोई बेवकूफो की तरह नहाये तब भी ?
और प्रायः ऐसे ही मौकों पर खिलखिलाते हुए वानीरा अनचबके
ढेर सी बालू विवेक की देह पर या तो मल देती रही है श्रथवा उडा!ः
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