प्रगति की राह | Pragati Ki Raha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो হন बेसिक स्कूल में भरती हो गया। आरम्भ के कुछ दिन तो टीक-ढीक ही बीते) फिर उसके भीतर जी चपलता थी उसके अंकुर लगे फूटने । पण्डितजी ने इस बात पर ध्यान दिया और मन में यह निश्चय किया --यदि हस बालक की मानसिकता हाथ आ गईं, तो निःसन्देह इससे एक असाधारण योग्यता प्रकटाई जा सकती है । पणिडतजी बेसिक के मूल में मनोविज्ञान को ही मानते थे। बाल- शिक्षा उनके जीवन की रुचि थी, व्यवसाय नहीं । उन्‍हें धाल-मनोविज्ञान का अच्छा अध्ययन था। उन्होंने यथानियम्र बेलिक-शिक्षा की योग्यता भो पाई थी और पश्चिमी दृष्टिकोश को भी पढ़ा था। यहद्द सब होते हुए भी उनका एक अपना दृष्टिकोश था। बेसिक के अनेक वादों को विवाद मानते थे वह। पश्चिम की रीति-नीति पर आँख बंदकर चलना स्वीकार न था उन्हे । वह बाल-मानस को दी शिक्षा का सर्वप्रथम, सबसे कोमज्ञ भर सबसे आवश्यक छोत्र मानते थे । वह देश के लिए योग्य नागरिक और घर के लिए योग्य अविभावक का जन्म वहीं पर मानते थे । वह कट्दते थे, बाल-मानस हो वह भूमिका हे जहाँ पर चरित्र-निर्माण की पहली शिला न्यस्त की जाती हः । उजाले और अन्धकार की दिशा-सूच्चकता मनुष्य वहीं पर प्राप्त करता है ओर वहीं पर उसका पथ-निर्देश होता है। जब पथ-निर्देश दो गया तो फिर अपनी स्वाभाविकता से ही षह




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