भाग्य | Bhagya

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Bhagya by भगवत जैन - Bhagvat Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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1राशिक-नाटक ] १४ छ ककत क्कि क्क क চে हुपाल--( क्रोध के साथ ) जानती हो, मैना सुन्दरी ! किसके सामने बोल रही हो ? बड़ी बहिन को निलेज्ञ, श्रोर अपने का कुलीन बतलाते हुए कुछ संकोच होना चाहिए तुम्हें । ना--( दृढ़ किन्तु सरल शब्दों में ) जानती हूँ, पूज्य पिताजी के सामने ! विश्वास कीजिए कोई शब्द ऐसा न निक- लेगा, जो आपकी पूड्यता के लिए अपमान-जनक हो। लेकिन पिताजी ! में सत्य से मुंह भी न मोड़ सकूँगी। मैं मानती हूँ, बहिन सुरसुन्दरी की कुलीनता में काद अन्तर नहों । लेकिन उन्हें जो शिक्षा मिली, वह जो जिस वातावरण में घुल मिल कर अ्रपने को भूल गई --यह उसी का कुपरिणाम, यह उसी की कुचेष्टा थो, जा उन्होंन नारी-सुलभ-लज्ञा को ठुकरा कर, पति के विपय में अपनी इच्छा प्रगट करने के लिए मुँह खाला। नहीं, बहिन सुरसुन्दरां ऐसा कभी न कर सकतीं । क्या से क्या कर डालता हैं, पल में साहबत का असर । पल में ही खूंर्वार कर देता, मिठाई को, ज़हर ॥ नरम शाखां को जिधर, चाहा उधर को मोड़ दौ-- हर तरह का असर उन पर, हो सकेगा कारणर॥ पहुपाल-( निरुत्तर होकर ) हाँ, यह मानता हूँ--मंना सुन्दरी ' मगर फिर भी कन्या से वर के बारे में सर्म्मात लेना कुछ बुरा नही हूँ | क्‍योंकि वह जिन्दगी का सोदा है । उसे अपन जीवन-साथी के विपय में पूरी जानकारी की जरूरत हैं । मेना--( गंभीर-स्वर में ) लेकिन पिता स ज्यादह गंभीर श्रध्य- यन वह्‌ कर सकं, यह दुराशा मात्र हैं! हा सकता है,




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