भाग्य | Bhagya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
146
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)1राशिक-नाटक ] १४
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हुपाल--( क्रोध के साथ ) जानती हो, मैना सुन्दरी ! किसके
सामने बोल रही हो ? बड़ी बहिन को निलेज्ञ, श्रोर
अपने का कुलीन बतलाते हुए कुछ संकोच होना
चाहिए तुम्हें ।
ना--( दृढ़ किन्तु सरल शब्दों में ) जानती हूँ, पूज्य पिताजी
के सामने ! विश्वास कीजिए कोई शब्द ऐसा न निक-
लेगा, जो आपकी पूड्यता के लिए अपमान-जनक हो।
लेकिन पिताजी ! में सत्य से मुंह भी न मोड़ सकूँगी।
मैं मानती हूँ, बहिन सुरसुन्दरी की कुलीनता में काद
अन्तर नहों । लेकिन उन्हें जो शिक्षा मिली, वह जो
जिस वातावरण में घुल मिल कर अ्रपने को भूल
गई --यह उसी का कुपरिणाम, यह उसी की कुचेष्टा
थो, जा उन्होंन नारी-सुलभ-लज्ञा को ठुकरा कर, पति
के विपय में अपनी इच्छा प्रगट करने के लिए मुँह
खाला। नहीं, बहिन सुरसुन्दरां ऐसा कभी न कर
सकतीं ।
क्या से क्या कर डालता हैं, पल में साहबत का असर ।
पल में ही खूंर्वार कर देता, मिठाई को, ज़हर ॥
नरम शाखां को जिधर, चाहा उधर को मोड़ दौ--
हर तरह का असर उन पर, हो सकेगा कारणर॥
पहुपाल-( निरुत्तर होकर ) हाँ, यह मानता हूँ--मंना सुन्दरी '
मगर फिर भी कन्या से वर के बारे में सर्म्मात लेना
कुछ बुरा नही हूँ | क्योंकि वह जिन्दगी का सोदा है ।
उसे अपन जीवन-साथी के विपय में पूरी जानकारी
की जरूरत हैं ।
मेना--( गंभीर-स्वर में ) लेकिन पिता स ज्यादह गंभीर श्रध्य-
यन वह् कर सकं, यह दुराशा मात्र हैं! हा सकता है,
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