अद्वैत वेदान्त में आभासवाद | Advaita Vedanta Me Abhasavada
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
344
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( श )
केवल रूप का ही प्रतिधिम्व होता है, उनके अनुसार शब्द आदि के भी प्रतिविम्ब होते
हैँ । बतंमान वैज्ञानिक युग के आविष्कारों ने भी अब यह निविवाद रूप से सिद्ध कर
कर दिया है कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध--इन पांचों ग्रुणों का अ्तिविम्बन
होता है । घ्वनिविस्तारक হল্ন (],0100992111 [২201০ 61০.) के द्वारा दूरस्थित
शब्द का जितनी मी दूरी पर प्रतिविम्वित शब्द सुनाई पड़ता है, वह मूल शब्द का
प्रतिविम्ब ही तो है| 'हीटर' मौर 'कूलरः यन्त्रों के द्वारा यन्वस्थित ताप भौर शैत्य का
पूरे कमरे में जो अनुभव होता है, वह यान्त्रिक ताप और शैत्यं खूप स्पशं गुण का সবি-
विम्ब नहीं तो षया हे ? रूप-प्रतिविम्व अतिप्रसिद्ध और स्वंसम्मत है। शरावनिर्माण-
शाला या भट्टो से वायु के द्वारा उपानीत शराव-रस तथा 'सुगर-मिलों' से प्रसृत माधुय॑
रस का अनुभव जो आस-पास के स्थानों मे होता हे, वह मौलिक रस का प्रतिविम्व नहीं
तो क्या हे ? परिपक्व अतिमधुर आम्रफलो से लदे हुए आम के बगीचे का सारा आनस्त-
रिक प्रदेश माधुर्य॑रसप्लावित भनुभूत होता ह | यह स्पष्ट रस-प्रतिविम्ब है । ग्रुलाव
ओर केंवड़ा भादि सुगन्वित पुष्पों की वाटिकामे घुसते ही परिमल के प्रवाह का या
कस्तुरी के सोरम का समीपवर्ती देश में जो अनुमव होता है वह गन्व-प्रतिविम्ब नहीं
तो क्या है ? सच पूछिए तो रूप-प्रतिविम्ब अत्यधिक बोर सर्वत्र अनुभव-पथ मे भाता
है । 1८पएपआ०9 के कारण ही रूप-प्रतिविम्ब में प्रतिविम्व शब्द रूढ़ सा हो गया है
तथा अन्य ग्रुणों के प्रतिविम्व के लिए इस शब्द का प्रयोग आपाततः जंचता नहीं ।
पर आधुनिक नवीन वैज्ञानिक आविष्कारों ने विचारकों के मस्तिष्क से इस संकीर्णता
को दूर हटा दिया है। दूरदर्शनयन्त्र तथा चलचित्र में मानवशरीर (अर्थात् समस्त बद्धो-
पाजु एवं उसकी गति आदि) का फोटो के द्वारा जो अनुभव होता है वहू सब प्रतिविम्ब
के ही भाघुनिक उदाहुरण हैं।
दपंणस्थ मुखरूप प्रतिविम्ब दर्पणोपाधिकृत-परिच्छेद से रहित होता है, क्योंकि
दपंण चाहे वदा हौ या छोटा, उससे प्रतिविम्व में कोई परिच्छेद नहीं होता । १५ सूर्यं
का प्रतिविम्व जैसा नदी के जल में दिखाई देता है वैसा हो समुद्र के जल में भी ।
इस वाद के अनुसार प्रतिविम्बसंशक मुख विम्बरसंज्षक मुख से अभिन्न माना
जाता है भर्थातु विम्बप्रतिविम्वैक्य हे ।
नृसिहाश्रमपादाचार्य ने भी भावपष्रकाशिका टीका में कहा है-''प्रीवास्थमुखामिन्न-
तया अत्यन्ततत्सदशतया वा अनुभूयमाने प्रतिधिम्बे विलक्षणाकारणजन्यत्वानुपपत्त एवेति 1
तस्मादु दपंणे प्रतीयभानमुखं ग्रीवास्यमेव तदभेदप्रत्यभिन्नानात्तद्भेदस्य ढुनिरूपत्वातु परि-
शेपास्वेति 1' अर्थान् दपण में प्रतीयमान मुख तदेवेदं मुखम् इस प्रत्यमिन्ञान के कारण
१८. बरद्वैतसिदधि, पृ० ८४८-४६
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