जैन लक्षणावली भाग 1 | Jain Lakshanavali Bhag 1

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Jain Lakshanavali Bhag 1  by बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री - Balchandra Siddhant-Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो शब्द सन्‌ १६३६ में मेरी नियुक्ति वीर-सेवा-्मंदिर सरसावा में हुई। उसके समभग कोई डेढ़ वर्ष बाद मुख्तार साहब ने एक दिन बुला कर मुझसे कहा कि दिगम्बर-श्वेताम्बर समाज मे ठेसा एक भी एशब्दकोष नहीं है, जिसमे दोनो सम्प्रदाय के ग्रन्थों पर से लक्षणात्मक लक्ष्यध्ाब्दों का संकलन किया गया हो। प्राकृत भाषा का पराइय-सह-महण्णवों' नाम का एक दवेताम्बरीय शब्दकोष प्रवदय प्रकाशित हृभ्राहै। पर उसमे दिगम्बर ग्रन्थोमे पराये जाने वाले प्राकृत शब्दो का भ्रमाव है-वे उसमें नहीं हैं । दूसरा प्रागम शब्दकोष है जिसमे प्रध॑मागघी प्राकृत के शब्दों का प्रथ॑ हिन्दी, प्रंग्रेजी भौर शुजराती भाषा में मिलता है। पर दिगम्बर समाज मे प्रचलित प्राकृत भाषा का एक भी शब्दकोष नहीं है जिसके बनते को बडी ग्राव्रश्यकता है। मेरा विचार कई बर्षों से वल रहा है कि दिगम्वर प्राकृत-संस्कृत म्रभ्यो पर से एक शब्दकोप का निर्माण होना चाहिए भौर दूसरा एक “लाक्षणिक शब्दकोष । जब उपलग्ध कर्षो में दिगम्बर शब्द नहीं मिलते, तब बड़ा दुख होता है। पर क्‍या करूँ, दिल मसोस कर रह जाना पढ़ता है, इषर म स्वयं प्रनवकाश से सदा धिरा रहता हँ । भ्रौर साधन-सामभ्री भी भ्रमी पूणं रूप से संकलित नही है । इसी से इस काय॑ में इच्छा रहते हुए भी प्रवृत्त नहीं हो सका । अब मेरा निश्चित विचार है कि दो सौ दिगम्बर झऔौर इतने ही श्वेताम्बर ग्रन्थों पर से एक ऐसे लाक्ष- णिक शब्दकोष के बनाने का है जिसमे कम से कम पच्चीस हजार लाक्षणिक छाब्दों का संग्रह हो । उस पर से यह सहज ही ज्ञात ही सकेगा कि मौलिक लेखक कौन है, भ्रौर किन उत्त रवर्ती भ्राचायों ने उनकी नकल की है । दूसरे यह भो ज्ञात हो सकेगा कि लक्षणों मे क्या कुछ परिस्थितिवंश परिवर्तेन या ঘহি- वर्धन भी हुआ है। उदाहरण के लिए 'प्रमाण' शब्द को ही ले लीजिए । प्रमाण के प्रनेक लक्षण हैं, पर उनकी प्रामाणिकता का निर्णय करने के लिए तुलनात्मक भ्रध्ययन करने की प्राष्यकता है । प्राचार्य समनन्‍्तभद्र ने देिवागम' में तत्त्वज्ञान को शौर स्वयंभूस्तोत्र मे स्व-परावमासी ज्ञाम को प्रमाण बतलाया है' । प्रनतर न्यायावतार के कर्ता सिद्धेन ने समन्तमद्रोक्त 'स्व-परावभासी शान के प्रमाण होने की मान्यता को स्वीकृत करते हए बाषवजित' विशेषण लगाकर स्व-पराव. भासी बाधा रहित ज्ञान को प्रमाण कहा हैः । पश्चात्‌ जैन न्याय के प्रस्थापक भरकलंकदेव ने 'स्वपराव. भासी' विशेषण का समर्थन करते हुए कहीं तो स्वपरावभासी व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण बतलाया है झौर कही प्रतधिगतार्थक प्रविसवादी ज्ञान को प्रमाण कहा है'। प्राचार्य विद्यानन्द ने सम्य्ज्ञान को प्रमाण बतलाते हुए 'स्वार्थव्यवसायात्मक' ज्ञान को प्रमाण का लक्षण निदिष्ट किया है । माणिकयनन्दी ने एक ही वाक्य मे 'स्व' झौर 'अपूर्वाथ पद निविष्ट कर अकलक द्वारा विकसित परम्परा का ही एक प्रकार से प्रनुसरण किया है । सूत्र से निविष्ट 'अपूर्य” पद माणिक्यनदी का स्वोपज्ञ नही है, किन्तु उन्होंने श्रतिष्चित १. तत्त्वज्ञानं प्रमाण ते युगर्पत्सवंभासनम्‌ । देवा का. १०१५ >< >< २९ स्व-परावभासकं यथा प्रमाण भूवि बुद्धिलक्षणम्‌ । वृहत्स्वयं . ६३० २. प्रमाण स्व-परावभासि ज्ञानं बाधविवजितम्‌ । न्यायवा. १, ३. व्यवसायात्मकं ज्ञानमास्मा्थं ग्राहक मतम्‌ । लधीयस्त्रय ६०. प्रमाणमविसवादि ज्ञानम्‌, भ्रनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात्‌ । अष्टश, का, ३६. ४. तस्स्वार्थंव्यवसायास्मन्ञान मानमितीयता । लक्षणेन गताषंत्वात्‌ उपरथं मन्यद्विशेषणम्‌ ॥ तत्त्वायेश्लोकवा. १, १०, ७७; प्रमाणप. पृ. ५३.




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