जैन सम्प्रदाय शिक्षा | Jain Sampraday Shiksha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथम अध्याय ॥ १३ पांचवां भेद-अयादि ॥ परिमाष ॥ दो शब्दों का सरों द्वारा ॥ किस स्वर को क्या हुआ ॥ ए ष জী, জী, ने+अन-नयन । ए+म अय । इनसे परे कोई स्वर गैनअन-गायन । ऐ+अ-भाव | रहे तो कमसे उनके पो+अन-पवन । ओ+जअ-अव | स्थानम अय्‌, आयू पौ+अकन्पावक | औ+भरभाव | अव्‌, जादू हो जति भौ+इनी-भाविनी । ो+ह=मावि । है तथा अगला स्वर নী+আনানা । ओ+भा=भावा । पूर्व व्यज्ञनमे मिला शै+ई-शायी । ऐ+ई-आयी । दिया जाता है॥ शै+आते-शयाते । एमा=मया | भौ+उक-भावुक । জী+ত-আন্ত ॥ व्यञ्ञनसन्धि ॥ इस के नियम बहुत से हैं-परन्तु यहां थोड़े से दिखाये जाते हैं;-- नम्बर ॥ नियम ॥ व्यज्ञनों क द्वारा शब्दों का मेर ॥ १ यदि क्‌ से धोष, अन्तख् वा खर वर्ण सम्यकू+दर्शन-सम्यददशेन। दिक्‌।+अम्बर- परे रहे तो क्‌ के स्थानमें ग शे जाता दै॥ दिगम्बर । दिक्‌ न ईशः-दिगीशः इत्यादि ॥ २ यदि किसी वर्ग के प्रथम वर्ण से परे सानु- चित्‌ + मूरतिचिन्ूतिं । चित्‌ + मय~ नासिक वर्ण रहे तो उसके स्थान में उसी वर्ग का सानुनासिक वर्ण हो जाता है ॥ ३ यदि चू, द, पू, वर्ण से परे घोष, जन्त- स्थ वा खर वर्ण रहे तो ऋमसे जू, ड्‌ और व्‌ होता है ॥ 9 यदि ऋख स्वर से परे छ वण रहे तो वह चू सहित हो जाता है, परन्तु दीषे स्वरसे परे कहीं २ होता है ॥ “७ यदि त्‌ से परे चवगे अथवा यवर्ग का प्र थम वा द्वितीय वर्ण हो तो द्‌ के स्थान मं चूवाद हो जाता है. और तृतीय वा चतुये वर्ण परे रहे तो नु॒ बाड्‌ हो जाता है ॥ चिन्मय । उतू-मत्त--उन्मत्त | तत्‌+नयन्‌= तत्रयने । भप्‌+मान~अम्मान ॥ अचु+अन्त-अजन्त | पटन-वदन-यडूदन। अपू+जा-भजा, इत्यादि | वृक्ष+छाया-जृक्षच्छाया | अव+छेद--भव- च्छेद | परि+छेद-परिच्छेद। परन्तु लक्ष्मी+- छाया-लक्ष्मीच्छाया वा रक्ष्मीछाया ॥ ` तत्‌+चारु+-तचारु । सत्‌+जाति-सजाति | उत्त+ज्वल-उज्जूल । तततटीका-्तटीका । सत्‌+जीवन- सजीवन । जगत-+जीव-ज- गजीव । सत/जन- सजन |




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