अग्रवाल जाती का विकास | Agravala Jati Ka Vikas

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Agravala Jati Ka Vikas by डॉ परमेश्वरीलाल गुप्त - Dr. Parmeshwarilal Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“)॥ हुए आपने बतलाया है कि, अग्रवाल शब्द का विकास मुस्लिम काल में हुआ है। इसके पहले इस शब्द का कहीं उल्लेख नहीं मिरुता । आपने अग्रवाल शब्द पर भिन्न भिन्न मतों का विवेचन करते हुये अपना मत इस प्रकार प्रगट किया है :- ४ धअग्रवाल' शब्द का तात्पय अग्र के निवासी है । अकेली अग्रवाल जाति ऐसी नहीं है जिसमें वाल प्रत्यय का प्रयोग हुआ हो । पालीवाल, ओसवाल, खण्डेलवाल, वणवाल आदि सभी प्रत्यय वाली जातियाँ अपने नाम की निवासबोधक मानती हैं। ओसवालों की अलुश्न॒ति है कि उनका प्रादुर्भाव ओसनगर से है। खण्डेलवालों की उत्पत्ति जयपुर राज्य के खण्डेल नगर से हुईं है। पालीवार्लों का जोधपुर के पल्लीनगर से सम्बन्ध है। इससे स्पष्ट जान पड़ता है कि अग्रवाल शब्द भी अपनी जाति के मूल निवास का बोधक है ।” इसके बाद परिशिष्ट में नाग वंश, अग्रवाल जाति के प्रचलित गोत्रों और उसके विस्तार, भेद और शाखा के सम्बन्ध में लेखक ने अपने विचार प्रगट किए हैं और बतलाया है कि जो १८ अथवा सादे सत्तरह गोत्र माने जाते ह इसके सम्बन्ध में--- “मेरी धारणा है कि आग्रेय अण में जिन १८ प्रधान कुलों का हाथ रहा, उनका अथवा जिन मित्रों के संघ से वह मित्रपद्‌ बना था उनका द्योतक यह गोत्र है। यह भी सम्भव है कि अग्नश्नेणी के रूप में, उसमें, जिन १८ कुलों का निवास रहा हो, उन्हीं के प्रतीक यह गोत्र हों ।” लेखक का यह मत कुछ समीचीन भी प्रतीत होता है, क्योंकि यदि एक ही पिता के ३८ पुत्र होते और उन्हीं के करण १८ गोत्र बने हुए होते तो एक ही पिता के वंशजों में परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध की प्रथा प्रचलित न हुईं होती । जो हो पुस्तक बड़ी विवेचना के साथ छिखी गईं है ओर मैं सम- झता हूँ कि श्री सत्यकेतु जी की पुस्तक अग्रवाल जाति का श्राचीन




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