उदबोधन | Udbodhan

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Udbodhan by अयोध्या सिंह उपाध्याय - Ayodhya Singh Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ७ 1 उतनादही अधिक यत्नवान्‌ ओर उतनादी अधिक अध्यवसाय- शीर होने की आवर्यकता दे । जगत के उञ्ज्वख रत्न भार- सीय दाशासीक ग्रन्थों से लेकर ग्रास्यभापा की साधारण कहावतों परयनन्‍त का पय्योवेक्षण याहे आप सुषम दारि 'से करेगे, तो आप को प्रतिपन्न डो जावेगा, कि धम्मे से वद्र कर हिन्दू जाति के लिये कतंव्य काय्ये अन्य नहीं है, और ऐसी अवस्था में यह निर्ववाद है कि धम्मे के लिये हम को समधिक सचेष्ठ, विशेष तर यत्नवान और अधिकतर .अध्य- ससायशाल होना अपोक्षत ইং अत्यन्त मनोवेदना के साथ दम यह प्रकाशित करते हैं कि हमारा आचरण इस सिद्धान्त के सवेथा प्रतिकूल है । इम एक अकृत कर्म्मोंपुरुष समान यह (नोश्वेत किये वैदे है, इस 1सेद्धान्त पर उपनीत दै, कि धम्म का पतन अवदयम्भावी है, अतएव उक्ष के लिये उद्योग करना निष्फ दै, यत्न करना व्यथ है, ओर परिम करना विडम्बना है | हम को पौरुष का अभिमाम है, उत्साह का गवै दे, अध्यवसाय का दम्भ है, यत्न का জা है, और शाक्ति का उन्माद हे-परन्तु धम्मे का नाम छुनतेहदी- हमारा पौरुष नष्ठ हो जाता है, उत्साह ध्वंस हो जाता है, अध्यवसाय रसातरू को चला जाता है, यत्न मिट्टी में मिल जाता है, और शक्ति क्र पता तक नहीं छगता | ऐसा होने पर भी हम को पुरुष होने का धम्भेप्राण बनने का, अध्यचसायजशीर कहलाने का, रोग, हे | छि। छि। छिः जानें हमछोग कैसी मिट्टी से बनेहँ-ओर हम छोगों के रक्त पर कितना पाछा पड़ गया है । पारेणामदर्शिता उत्तम गुण है, फठ्षद काय्यही उत्कृष्ट है, यह सत्य है कि “ प्रयोजन मचुदि्यनमन्दोपि प्रबतते ” किन्तु इस से भी अछ्ठतर, इस




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