योग दर्शनम् | Yog Darshanm

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाषाभाष्यसहित-समाधिपाद । (३) विक्षिप्र ह. जव तपोगुणप्रधान मृद होताहे तब अकल्याण अधम अज्ञान अवेगग्य अनश्वय्यको पाप्त होता दे अज्ञानहाब्दसे श्रम निद्रा अर्थका भी ग्रहण यहां मृद होनंके लक्षणम जानना चाहिये- उज्ञोंगण प्रधान क्षिप्त होता है इस प्रकारके तीन गुण होनेके कारणसे त्रिगुणात्मक चित्त क्षिप्त मूह सबके साधारण होते है. विक्षिप्त प्रथम योगियांका चित्त हांता है. योगी चार प्रकारके हते है प्रथम काल्पक मधुभूमिक प्रज्ञाज्योति आतिक्रांति भावनीय तिनके लक्षण यह हैं-- प्रथम सच्गुण प्रधान रजोंगुण तमोग्रण युक्त होता है, द्वितीय एकाग्र संप्रज्ञात योगमे उत्पन्न सिद्धिसे योगीका चित्त धमेज्ञान वगग्य तेश्वयेकों प्राप्त होता है, ततीय जब रजोगुण तमोगुण मलसे स्वच्छ शुद्ध सक्च चित्त होता है तब विवेकरूयातिद्वार पुरुपमात्रका ध्यान पुरूष धमेवुद्धिसे कर्ता हे जव ध्यान करनेवाखा ध्यानम द होकर अनेक प्रकारके विषय देखनेपर भ अशुद्ध नाशसान निश्चय करकं सच्छगुण विचारयुक्त विवेकख्याति्मसे भी चित्त शक्तिको रोकता वा निगेध करता है, संस्कास्पात्र ग्हज्ञाता है वह चतुर्थ अतिक्रांति भाव- नीय योगकी अवस्था है सोई अर्मप्रज्ञातयोंग वा समाधि है. इसमें केवल शुद्ध चतनरूपयं पग्र होकर अन्य विषयोंकी नहों जानता सम्प्रणे विषय सुख दुःख मोह झनन्‍्य होता है ॥ २ ॥ जो यह शंका है कि बुद्धिवृत्ति पुरुषका स्वभाव है वृत्ति निगेध होनेसे स्वभाव भिन्न कमे पुरुषकी स्थिति होसकती है ! इसका समा धान अब सूत्रमं वर्णन करते हैः तदा द्रष्ठः स्वरूप5वस्थानम्‌ ॥ दे ॥ तब दशका स्वरूपमं हो स्थान है ॥ ३ ॥ दो ०-तव द्रष्टा निज हमे, कर्‌ स्थित सु मान । यूने न भमत चेत अनत कहूँ, निज स्वरूप पहिचान। হা अभिप्राय यह हे किं, जब चित्तके शांत घोर मूढ सब वृत्तिर्योका




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