महाकवि सूरदास | Mahakavi Surdaas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
174
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१
भक्ति का विकास
बेदिक युग
वेदिक काल में प्रकृति के विभिन्न तत्वो की प्रतीक रूप में पुजा की जाती
थी। ये प्रतीक इन्दर, वरूण, रद्र, मरत श्रादि वेव रूपो मे, सवं गक्तिमान् सृष्टि
के श्रादि कारण, परब्रह्म परमात्मा फे हो स्वरूप समभे जाते थे । इस समय
तक ब्रह्म के स्वरूप का निर्णय हो चुका था \ गम्भीर चिन्तन द्वारा उसका
निरूपण भी हुआ था । जितने गम्भीर विचार हारा ब्रह्म-निरूपण वैदिक
ऋषियों ने किया उतना आगे चलकर कही उपलब्ध नहीं होता । लोकमान्य
तिलक ने कहा है कि “ऋग्वेद के नासदीय सूवत में जिनकी स्वाधीन उत्तम
चिता है, उतनी आज तक मनुष्य जाति नही कर सकी ।” इसी ब्रह्य कौ उपा-
सना प्रतीक देवो के रूप में करना ऋपि श्रपना कर्तव्य समभते थे ।
वेदिक मन्तो में विवशता फा श्राभास कहीं नहीं मिलता । वैदिक ऋषि पू
उल्लास से अपत्ने रक्षक, मिन्न तथा सुहृद देवताश्नो के प्रति भरेम भरे मन्त्रो कौ
उच्चारण करते थे। “ऋग्वेद में मनुष्य और देवताश्रो का जैसा सम्बन्ध हैं वैसा
भागे के हिन्दु-साहित्य मे नही है । यहाँ देवता मनृष्य-जीवन से दूर नही है ।
পাঘা का विश्वास है कि. देवता उनकी सहायता करते है, उनके शत्रुओं का
नाश करते हू। वे मनुष्य से प्रेम करते है और प्रेम चाहते है । भारतीय भक्ति
भस्श्रदाय का आदि-स्रोत ऋग्वेद है। यहाँ कुछ मन्त्रो में आदमी और देवता के
| बीच में गाढे प्रेस और मित्रता की कल्पना की गई है 1/१
१. हिन्दुस्तान की पुरानी सभ्यता, डॉक्टर वेणी प्रसाद, पृष्ट ४२।
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