जैन जगती | Jain Jagti

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Jain Jagti by दौलतसिंह लोढ़ा 'अरविंद' - Daulat Singh Lodha 'Arvind'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ & ] पुस्तक की मूल भावना है कि जेनों में बढ़ता हुआ भेदभाव नष्ट हो । बेशक प्रथग्भाव हास का श्रौरसम या समन्वय भाव विकास का द्योतक है । अनेकान्त यदि कुछ है तो एकता का प्रतिपांदन है । एकांत वृत्ति अनेक्य बड़ांती है | यदि जनों में फूट दे तो यह मूठ है कि वे अनेकान्तवादी हैं। अनेकान्त जिसको नीति हयो व वगे कट फँट नहीं, सकता | अनेकान्त अहिंसा का बोद्धिक पर्याय है। द्वतवृत्ति दिगंबर और श्वेताम्बर के रूप में जन अखण्डता के दो भाग करक ही नहीं रुछझ सकती | षढ़ तो समाज-शरीर के खण्ड-खण्ड करेगी। वह हिंसा की, एकान्त की, वृत्ति ही तो है। सब इतिहास में सदा विनाःश की यही प्रक्रिया रही है । अपने बीच का अ्रभेद जब भूल जाय और भेद खाने लग चण तब सम जाना चादिए कि मृत्यु का निमंत्रण मिल गया टै । में नहीं जानता कि जन आपस में मिलेंगे। यह जानता हूँ कि नहीं मिलेंगे तो मरेंगे । यह पुस्तक उनमें मेल चाहती है । श्रतः पढ़ी जायगी तो उन्हें सजीव समाज के रूप में, मरने से बचने में मदद देगी | जरूरी यह कि जसे अपने वर्गं के भीतर ससे इतर वगं के प्रति मेत्त की ही प्ररणा उससे श्राप्त की जाय । में लेखक के परिश्रम और सदूभावना के लिये उनका अभिनंदन करता हूँ । द्रियागंज दिल्ली जैने न्द्रकुमार | जैनेन्द्रकुमार




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