प्रवचनसार अष्टम भाग | Pravachan Ashtam Bhaag

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Pravachan Ashtam Bhaag  by राजकुमार जैन - Rajkumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गाथा १७२, दिनाडु; २२-३-६३ ] [ & परिणमन है उसे ज्ञातृत्व कहते हैं, स्वभाव नहीं कहते हैं। ज्ञ.न होता है. उत्पाद व्यवकी अपेक्षा और स्वभाव होता है ज्ञायक स्वभावकी अपेक्षा इस व्याख्यासे क्ुटस्थ नित्य अपरिणामी आत्मतत्त्वका निषेध किया है। यह कुटस्थ नित्य नहीं है, इससे वृत्ति चलती है-। देखो अ्रलिज्धग्रहरा शुब्दका - कितने प्रकारसे पूज्यपाद अमृत चन्द्र सूरी महाराजने तत्त्व निकाला है.। उनकी अनुपम प्रतिभाकी ही यह आभा समभिये । | इस छठवें अ्र्यमें यह्‌ ध्वनित हुआ कि आत्मा ज्ञान स्वभावमय है। उस ज्ञान स्वभाचका परिणमन, तरंग चलती है ! उस परिणमनके कारण यह आत्म ज्ञाता है। यहां ज्ञातृत्वमें तो आता है उत्पाद ब्ययका सम्बन्ध और ज्ञायक स्वभावसे समभमें आता है भौव्य । यदि आत्मा स्वभावसे ही अपने आपके ग्रहणमें आये तो इससे यह श्रर्य निकलेगा कि ज्ञाता नहीं रह सकता। জব ন্ধি स्वभावेकान्तवादमें कहा है कि चैतन्यं पुरुषस्य स्वल्पम्‌ | आत्मा का स्वरूप चैतन्य है, ज्ञान नहीं है। जब उस पुरुषमें ज्ञानका समवाय॑ होता है। तब वह जानता है और जब वहाँ ज्ञानका वियोग हो जाता है तो वहंसे ज्ञान हट जाता है, खतम हो जाता है, केवल चैतन्य स्वरूप रह जाता है, इसीका नाम मोझ्ञ है तो केवल चेतन्य स्वरूप रह जाता है,मुक्तिमें ऐसा तो नहीं है । मुक्तिमें तो वह्‌ तीन लोक तीन कालकी पर्यायोंको सब पदार्थोको एक साथ जानता रहता है । यह स्पष्ट जानते रहना ही प्रत्यक्ष ज्ञातृत्व कहलाता है। ज्ञातृत्व द्रष्टत्व नहीं हो तो चैतन्यका स्वरूप ही क्या ? तो प्रत्यक्ष ज्ञातृपना भात्माके अन्दर हैं । यह छठवें अलिज्धग्रहरणके अर्थमें है । '” अलिंज्धग्रहरारा सातवां श्र्थ :--अब सातवां अर्थ कहेंगे-देखो, भेया ! লিক के द्व रां जिसका ग्रहरा नहीं है। यह सामान्य अर्थ तो वीसों अ्रथोमें: लिखा गया, थोड़ी विभक्ति बदल बदल कर; यहाँ कहते हैं कि उपयोग रूप चिन्ह॒के द्वारा ज्ञे यार्थोका आलम्बन जिसके नहीं है ऐसा यह भ्रात्मतत्त्व है। अर्थात्‌ वाह्य अर्थोकों यह ज्ञान आलम्बन नहीं करता । यह आत्मा वाह्म श्र्थों को विना छुए, बाह्य अर्थोका कुछ भी अतिविम्ब लिए विना, वाह्य ` अर्थका इन पदा्थेमिं कुच भी सम्बन्ध किए विना यह्‌ ज्ञान श्रपने स्वभावसे स्वभाव के. कारणं इस रूपसे जाननरूप परिणमता ह कि जसे क्रि ये दय है, अर्थ हैं वैसा ही जानता है यह आत्मा ही अपने आप; मगर `किन्हीं पदार्थोका -आलस्बन नहीं करता । । = , : भैया ! यह चित्‌ राजा स्वयं ऐश्वर्यशाली अपने आपके द्रव्यत्वतामक




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