तुलसी-दल | Tulsi-Dal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मधुर-स्वर सुना दो एक ही नामसे प्रसन्न होकर पावन कर दिया था, तुम्हींने जलमें अनायकी भाँति इबते हुए गजेन्द्रकी दौड़कर रक्षा की थी, और तुग्हींने भरी सभामें विपदप्रस्त द्रोपदीकी छाजकों बचाया था | इसीसे तो गोसाईंजी कातर-खरसे पुकार उठे- जो पे दूसरो फोउ ऐोह तो हों धारि षार प्रभु कत दुख सुनावों रोद ॥ काहि ममता दीनपर, काको परतित-पाचन नाम। पापमूर अजामिल्दं केहि दियो अपनो धाम ॥ रहै संभु चिरंचि सुरपति लोकपाल अनेक + सोक-सरि बूड़त करीसहिं दई काहु न टेक बिपुल-भूपति-सदसि महँ नर-नारि कह्मों प्रभु पाहि!। सकल समरथ रदे काहु न वसन दौलन्‍्हों ताहि॥. एक मुख क्यों कहों करुनासिंधुके शुन-गाथ ? भक्तहित घरि देह काह न कियो कोसलताथ ! आपसे कं सौपिये मोहिं जो पै अतिहि धिनात । दासतुलूसी और विधि कर्यो चरन परिहरि जात॥ इसलिये हे दीनवन्धु ! अब तुम अपनी ओर देखकर ही हमें अपनाओ और हे नाथ ! दयाकर एक वार तुम्हारी उस मोहिनी' मुरठीका वह उन्मादकारी मधुर-खर छुना दो जिसने দজ- बनिताओंको श्रीकृष्ण-गंत-प्राणा वना दिया था ! 1 2 পান




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