नाथ और संत साहित्य | Nath Aur Sant Sahitya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
238.92 MB
कुल पष्ठ :
727
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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डे योग का विवेचन विस्तार से किया गया है। इस प्रकरण में मुख्य बात यह हैं
“कि वैष्णव पांचरात्र संहिताओं और वेष्णवों की परम्परा में विकसित योग को
ध्यान में रखकर ही संतों के योग का विवेचन करना चाहिए। कारण यह है
ग्रंथों में विवेचित योग भक्ति का सहयोगी है; गौणोपाय है ॥
2 कबीरादि को जो योग मिला था, वह इसी तंत्र प्रभावित वैष्णव परम्परा सें ही 1
संस्कारच्यत जग्गी जाति में पालित कंबीर को जो योग मिला होगा, वह भी
कबीर को शुद्ध रूप में न मिला होगा । कबीर के जिस योग का परिचय हमें
उनकी रचनाओं में मिलता है; वह उनके पुनर्जन्म के बाद का प्रतीत होता हू।
वस्तुत: वैष्णव और शव परम्पराओं में विकसित योगों में प्रवृत्तियों का भंद नहीं
ज्ञान, योगादि के महत्व का भेद और योग के विविध तत्वों के विवरणों से भेद
हू। मैंने प्रबंध में केवल प्रवृतियों का विचार किया है। नाथों के योगयक्त
ज्ञान को संतों ने स्वीकार नहीं किया । संतों ने योग और ज्ञान से संवलित
भक्ति को ही स्वीकार किया ।. भर्क्ति ही उनके यहाँ मुख्योपाय है। लक्ष्यभंद
के कारण ही यह भंद हुआ हू। नाथों के यहाँ कायसिद्धि को गौण और
नाथ रूप से अवस्थिति को मुख्य छंक्ष्य माना गया हैं। संतों में भक्ति ही
मुख्य लक्ष्य है । कायसिद्धिं जेसी वस्तुएँ उनके लिये स्वयंप्राप्त हैं। भक्ति-
प्रॉप्ति के उपरान्त उसकी उपलब्धि के लिये प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं
उनके यहाँ रामरस ही कायसिद्धि प्रदान करता है।. संतों ने भक्तिपरक सुरत-
दाब्द-योग या विहंगम योग को स्वीकार किया जब कि नाथों ने राजयोग के
लिये हंठयोगपरक पिपींलक योग को ।
भारतीय रहस्यवाद का विचार करनेवाले विवेचक भक्ति और योग को
रहस्यवाद के अन्तर्गत लेते हैं। भक्ति के अन्तर्गत भी रामानजादि के संप्रदाय
में योगिप्रत्यक्ष या. इसी प्रकार के अतीन्द्रप्रत्यक्ष या प्रातिभज्ञान को मान्यता
प्रदान की गई हू । . इसका. संबंध. निर्गुण-सगुण-विवेचन से भी हैं। चिर्गण
भक्ति भी संभव हू और निर्गुण ..दाब्द की परिभाषा भी एकमात्र वही नहीं
जिसे शुक्ल: बना. लिया था... . रहस्यवादी पौराणिक दौली और प्रतीक-
पद्धति का विकास कबीरादि में हुआ है.। संघाभाषा जैसी - शैली का प्रयोग
तांत्रिकों भें बहुत. पुराना है। उसका विकास नाथों और संतों में हुआ हू 1.
वह दौली केवल बौद्धों की ही नहीं थी ।
इन सारी विवेचनाओं और उपलब्धियों का मल श्रेय हमारे आदरणीय
विद्वज्जनों और गुरुजनों को हू ।... नदीष्ण विद्वान और विद्यांदान में नित्योत्सा ही
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