मध्यकालीन हिंदी जैन काव्य में रहस्य भावना | Madhyakalin Hindi Jain Kavya Mein Rahsya Bhawna

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Madhyakalin Hindi Jain Kavya Mein Rahsya Bhawna by पुष्पलता जैन - Pushplata Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about पुष्पलता जैन - Pushplata Jain

Add Infomation AboutPushplata Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
$ मोह विचिकित्सा, सोक भौर धर्म । ज्ञान के पांच भेद है--मतति, श्रत, भवधि, अनः पर्यव भौर केवलशान । इस सूत्र, में विश्विष्ट ज्ञान के भ्रभाव फी ही बात की मई है। इसका स्पष्द तात्पयं यह है कि व्यक्ति संसार में मोहादिक कर्मों के कारण भटका रहता है ! जो साधक यह जान लेता है वही व्यक्ति प्रात्मश होता है। उसी को मेघावी भौर कुशल कहा गया है। ऐसा साधकं कर्मो से बंधा नहीं रहता । बहू तो प्रश्ममादी बनकर विकल्प जाल से भुक्त हो जाता है। यहां हिसा, सत्य भादि का विवेचन मिलता है पर उसका वर्गीकरण नहीं दिखाई देता । उसी तरह कर्मों भौर उतके प्रभावों का वरणणेत तो है पर उसके भेद-प्रभेदो का वर्णन दिखाई नही देता । बुन्दकुन्दाचाये तक भाते-झाते इन धर्मों का कुछ विकास हुआ जो उनके ग्रंथों में प्रतिबिम्बित होता है । 2. गध्यकाल; कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उनके ही पद चिन्हों पर झ्ाचायें उमास्वोति, समन्त- भद्र, सिद्धस्तेन दिवाकर, सुनि कार्तिकेय, भकलक, विद्यानन्द, भ्रनन्तवीयं, प्रभाचनद्र, मुनि योगेन्दु भादि भ्राचायों ने रहस्यवाद का अपनी सामयिक परिस्थितियों के प्रनु- सार विश्लेषण किया | यह दानिक युग था । उमास्वाति ते इसका सूत्रपात किया था भ्रौर माराक्यनन्दी ने उते चरम विकास पर पहुंचाया था । दरस बीच जंन रहस्य वाद दार्शनिक सीमा में बद्ध हो गया । इसे हम जैत दानिक रहस्यवाद भी कहं सकते हैं। दाशंनिक सिद्धान्तो के प्रत्य विकास के साथ एकं उत्लेखनीय विकास यह्‌ थाकिमप्मादिकालमे जिस भ्रात्मिक प्रस्यक्षको प्रत्यक्ष कहा ग्याथाभ्रौर इन्द्रिय प्रत्यक्ष को परोक्ष कहा गया था, उस पर इस काल मे प्रश्न-प्रतिप्रश्त खड़े हुए । उन्‍हें खुलकाने की दृष्टि से प्रत्यक्ष के दो भेद किये गये- सांध्यावहारिक प्रत्यक्ष प्रौर पारमार्थिक प्रत्यक्ष । यहा निश्चय तय श्लौर व्यवहार नय की दृष्टि से विश्लेषण किया गया | साधना के स्वरूप में भी कुछ परिवतंन हुश्ना । इस काल मे वस्तुत: साथना का क्षेत्र विह्तृत् हुआ । प्रार्मा के स्वरूप की झूथ सीमांसा हुई (उपयोगात्मकता पर भ्रधिक जोर दिया गया, कर्मो के मेद-प्रभेद पर मथने हुआ और शात-प्रमाण को भी चर्चा का विषय बसाया गया। दर्शक के सभी प्रगों पर तकंनिष्ठ भ्रस्थों को भी रचना हुई। पर इस युग मे साथना का बह रूप नहीं विज्ञाई देता जो झ्ारम्भिक काल मे था। साधना का तर्क के साथ उतता सामण्जस्य बेठता भी नही है । इसके बावजूद दर्शन के साथ साधना और भक्ति का निर्भर सूख नहीं पाया बल्कि सुधारात्मक तत्वों के साथ बह भक्ति ग्रान्दोलन का शप रहर करता भया । इस काल सें वाशंनिक उथल-पुयल बहुत्त हुई झौर क्रिया काष्ड की भोर प्रदृत्तियां बढ़ने लगी। “अप्पा सो परमप्पा' भ्रथवा” सस्दे सुद् ह




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now