राजस्थान के जैन संत | Rajasthan Ke Jain Sant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( छ ) इसी तरह भाँचाय नेमिचन्द्र ने द्रव्य संग्रह में उपाध्याय में पाये जाने वाले निस्ते गणो को गिनाया है! जो रयरात्तयजुत्तो शिच्चं घम्मोवरसरो शरदो । सो उवक्षायो श्रप्पा जदिकरवसहो रमो तस्स ४ आचाय॑ वे साथु कहलाते हैं जो संघ के प्रमुख है । जो स्वयं व्रतो का मरण करते है शोर दूसरों से करवाते है वे ही आचाय॑ कहलाते है। वे ३६ मूछगुणों) के घारी होते हैं। समन्‍्तमभद्ग, मट्राकंलक, पात्रकेशरी, प्रमाचन्द्र, वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र आदि सभी श्राचायं थे । इस प्रकार ध्लाचायं, उपाध्याय एवं सर्वंसाधु ये तीनों ही मानव को सुमागं पर के जाने वाले हैं। अपने प्रवचनों से उसमें वे जागृति पैदा करते है जिससे वह अपने , जीवन का अच्छी तरह विकास कर सके । वे साहित्य निर्माण करते हैं श्रौर जनता से उसके अनुसार चलने का आग्रह करते ह सम्पूणं जन वाङ्मय प्राचार्यो द्वारा निमित्त है । प्रस्तुत पुस्तक में संवत्‌ १४५० से १७५० तक होने वाले राजस्थान के जेन सन्तो का जीवन एवं उनके साहित्य पर प्रकाश डाला गया है। इन ३०० वर्षों में भदटरारक ही श्राचाये, उपाध्याय एवं सवंसाधुके रूप यें जनता द्वारा पूजित धे।ये मट्टारक प्रारम्भ में नग्न होते थे । भट्टारक सकलक्रीत्ति को निप्नंन्थराजा कहा गया है । म० सोमकोत्ति श्रपने आपको भ्रट्टारक के स्थान पर आचार्य लिखना अधिक पसन्द करते थे । भट्टारक शुभचन्द्र को यतियों का राजा कहा जाता था । भ० वीरचन्द महात्रतियों के नायक थे 1 उन्होने १६ वषं तक नीरस आहार का सेवन किया था आवां ( राजस्थान ) में म० बुमचन्द्र, जिनचन्द्र वं प्रभाचन्द्र की जो निषेधिकायें हैं वे तीनों ही नग्नावस्था की हो हैं। इस प्रकार ये भट्टारक अपना भाचरण श्रमण परम्परा के पूर्णतः अनुकूल रखते थे। ये अपने संघ के प्रमुख होते थे । तथा उसकी देख रेख का सारा मार इन पर ही रहता था। इनके संघ में मुनि, ब्रह्मचारी, आयिका भी रहा करती थी। प्रतिष्ठा-महोत्सवों के संचालन में इनका प्रमुख हाथ होता था। इन ३०० वर्षो में इन भट्टारकों के श्रतिरिक्त भ्रन्य किसी भी साधु का स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं रहा श्रौर त उसने कोई समाजको दिक्षा निर्देशन का ही काम किया । इसलिये ये भट्टारक एवं उनके दिष्यु ब्रह्मचारी पद वाले सभी सन्त थे । मंडलाचार्य गुणचन्द्र के संघ में & आचारय॑, १ मुनि, २ ब्रह्मचारी एबं १२ प्राथिकाएं थी । 822००२००-२२००७२०७०२००००७२०७०२००७७७७००७०७०००००००७००७०७७७५७७५७७०२७०७७७७०७०एथमथ ০০৯০১০১০০১৩ 1 ३. द्वादइश तप दशश घर्मजुत पाले पथ्चाचार । घट आवश्यक गुप्ति ऋय. अचारज पद सार ॥




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