जैन कर्म सिद्धान्त का तुलनात्मक अध्ययन | Jain Karm Siddhaant Kaa Tulnaatmak Adhyayan
श्रेणी : धार्मिक / Religious, पौराणिक / Mythological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
112
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कम-सिद्धान्त ও
अंगुत्तरनिक्ाय में भगवान् बुद्ध ने विभिन्न कारणतावादी भौर अकारणतादादो
दृष्टिकोणों की समीक्षा की है ।' जगत् के व्यवस्था नियम के रूप में बुद्ध स्पप्टरूप से
कर्म-सिद्धान्त को स्वीकार करते है। सुत्तनिपात में स्वयं बुद्ध कहते हैं, किसी का
कर्म नष्ट नहीं होता । कर्ता उसे प्राप्त करता ही है। पापकर्म करनेबाला परलोक में
अपने को दूःख में पड़ा पाता है । संसार कर्म से चलता है, प्रजा कम से चलती हैं ।
रथ का चक्र जिस प्रकार आणो से बँधा रहता है उसी प्रकार प्राणी कर्म से बंधे रहते
हैं ।* बौद्ध मन्तव्य को आचार्य नरेन्द्रदेव निम्न शब्दों में प्रस्तुत करते है, जीव-लोक
और भाजन-लोक ( विश्व ) की विचित्रता ईश्वरक्ृत नहीं है । कोई ईश्वर री है
जिसने बुद्धिपृवक इसकी रचना की हो । लोकबवैचित्र्य कर्मज है, यह सत्त्वों के धर्म से
उत्पन्न होता है । बौद्ध विचार में प्रकृति एवं स्वभाव को मात्र भोतिक जड-जगत्
का कारण माना गया है। बुद्ध स्पष्ट रूप से कर्मवाद को स्वीकार करते हैँ । बुद्ध से
दुभ माणवक ने प्रइन किया था, हें गौतम, क्या हेतु है, क्या प्रत्ण्य है, कि मनष्य
होते हुए भी मनुष्य रूप वाले में हीनता और उत्तमता दिखाई पड्ठती हैं ? हे गौतम,
यहाँ मनुष्य अल्पायु देखने में आते है और दोर्घाय भी; बहुरोगी भी अल्परोगी भी; कुरूप
मी रूपवान् भी; दरिद्र भी धनवान भी; निबुंद्धि भी प्रज्ञावान् भी। हें गौतम, क्या
कारण हूँ कि यहा प्राणियों मे इतनी हीनता और प्रणीतता (उत्तमता) दिखाई पड़ती है ?/
भगवान् बुद्ध ने जो इसका उत्तर दिया है वह बौद्ध धमंमे कर्म॑वादके स्थान को स्पष्ट
कर देता है । वे कहते है, हे माणबक प्राणी कर्मस्वयं ( कर्म ही जिनका अपना ), कर्म॑-
दायाद, कर्ंयोनि, कर्मबन्धु और कर्म प्रतिशरण है । कम ही प्राणियों को इस हीनता और
उत्तमता में विभक्त करता हैं ।* बोद् दर्शन में कर्म को चैत्तसिक प्रत्यय के रूप स्वीकार
किया गया हैं और यह माना गया है कि कर्म के कारण ही आचार, वित्ञार एवं
स्वरूप की यह विविधता हैं । इस प्रकार बौद्ध धर्म ने कर्म को कारण मान कर
प्राणियों की हीनता एवं प्रणीतता का उन्तर तो बड़े ही स्पष्ट रूप में दिया है, फिर भी
यह कर्म का नियम क्रिस प्रकार अपना कार्य करता है, इसका काल-स्वभाव आदि से
क्या सम्बन्ध है, इसके बारे में उसमें इतना अधिक विस्तृत विवेचन नहीं हैं जितना
कि जैन दर्जन में है ।
জন दृष्टिकोण
जैन दर्शन में भी कारणता सम्बन्धी इन विविध सिद्धान्तों की समोक्षा की गयी ।
मूत्रकृतांग णवं उमके परवर्ती जन माहित्य मे इनमें से अधिकांग विचारणाओं की
विस्तृत समीक्षा उपलब्ध होती हैं। यहाँ विस्तार में न जाकर उन समीक्षाओं की
१, अंगुक्तरनिकाय, ३।६१.
२. मुत्तनिपात वामेटट्सुत्त, ६०-६१-
६. बौद्ध ५मद श्चन, ¶१० २५०.
४. मज्ञमनिकाय, ३।४ ५.
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