साहित्यालोचन | Sahityalochan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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केला €. मस्तिष्क मे मूतं या भरभिन्यक्त होने कोही कला मानताहं श्रतः इस दष्टि से कला एक्‌ नेसगिक विधान है । उसका विभाग नहीं किया जा सकता | परंतु जब हम भिन्न-भिन्न कला सृष्टियों पर विचार करते हैं, कलाओं के उस मूर्त रूप पर दृष्टि डालते हैं जो कभी . किसी सुगठित मृति और कभी किसी मनोहर काव्य के रूप में हमारे इंद्रियगोचर होते हैं तब हम कलाझ्ों की भिन्नतौ के दर्शन करते हैं । क्रोचे के मत के अनुसार यह भिन्नता कोई तात्तविक भिन्नता नहीं, केवल बाह्य मेद ह । वास्तव में इसे उपकरण-भेद ही सम~ भना चाहिए। मूल-अभिव्यक्ति---कलाकार के अंतर की अभिव्यक्ति--एकरस ही बनी” रहती हैं। कलाकार तो केवल अपनी मानसिक अभिव्यक्ति को--जिसे क्रोचे कला कहता है---कभी चित्र में चित्रित करता, कभी मूर्ति में प्रस्फुटित करता और कभी साहित्य में सन्निविष्ट करता है। इस प्रकार उसकी मानसिक ग्रभिश्यक्ति कलः क बाह्य रूप धारण करती है | कभी-कभी तो ऐसा होता है कि बाह्य रूप धारण करने में एक से अधिक उपकररों की सहायता लेनी पड़ती है। कभी काण्य में चित्रशकला का मेल किया जाता है--रूपक भ्रादि अलंकारो का संयोग होता है--ग्रौर कभी वास्तुकला में ` मूतिकला सच्चिहित की जाती है । इससे स्पष्ट है किकलाग्रों का यह्‌ वर्मीकरण बाह्य वर्गीकरण ही है। परल्तु व्यावहारिक दृष्टि से इसकी आवश्यकता सबको स्वीकार करनी ' पड़ती है । इसी व्यावहारिक दृष्टि से कलाओं को सर्वप्रथम (१) उपयोगी झौर (२) ललित कला इन दो विभागों में बाँठा गया हैं। यदि तात्त्विक दृष्टि से देखा जाय तो यह वर्गकरण संभव नहीं जान पड़ता । यदि उपयोगिता पर विचार किया जाय तो प्रत्येक कला में शारीरिक अथवा मानसिक उपयोगिता होती है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों और देश- काल की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में उचकी उपयोगिता की मात्रा में अन्तर हुआ करता है । परन्तु उपयोगिता तो कला का कोई अंतरंग नहीं है। इसी प्रकार ललित कलाओं का लालित्य तो उपयोगी कलाओं में भी होता है। हम बढ़ई की कारीगरी को उपयोगी: कहते हैं पर क्या उसमें लालित्य नहीं होता । फिर लालित्य की कोई क्या व्याख्या की जा सकती है अथवा उसकी मर्यादा बाँधी जा सकती है ? भिन्न-भिन्न ललित कलाओं में .. ही भिक्न-भिन्न व्यक्तियों के लालित्य की मात्रा भिन्न-भिन्न परिमाण में मिल सकती है। जब हम यह देखते हैं कि ललित कलाझओं में भी उपयोगिता होती है और उपयोगी कलाओं में भी लालित्य होता है, साथ ही जब हम जानते हैं कि ये दोनों सापेक्ष्य शब्द' हैं जो केवल कलाओं की विशेषता कह्ढे जा सकते हैं, कला” के कोई अंतरंग गुण नहीं तब हमें यह स्वीकार करना पड़ता है कि इस प्रकार का वर्गीकरण केवल व्यावहारिकः सुविधा की दृष्टि से ही किया जा सकता है । यदि व्यावहारिक सुविधा की दुष्टिसे देखा जाय तो कलाग्रोंका वर्गीकरण पूर्ण- अपूर्स अथवा सफल-असफल के विभागों में किया जा सकता है। कलाओं के समीक्षक




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