अभिधर्म कोश भाग 3 | Abhidharm Kosh Bhag 3

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Book Image : अभिधर्म कोश भाग 3  - Abhidharm Kosh Bhag 3

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आचार्य नरेन्द्र देव जी - Aacharya Narendra Dev Ji

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वसुबन्धु - vasubandhu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२८० अभिधर्मकोंश ३, भदन्त वसुमित्र का पक्त अवस्थान्यथात्व है। भ्रवस्था के भ्न्यथात्व से श्रष्वौ का श्रन्ययास्व होता है, धमं श्ध्वों में प्रवत्तंमान होकर, अवस्या को प्राप्त होकर (प्राप्य), भ्रवस्थांतर से नही द्रव्यान्तर से नही, न्नस्थ निदष्ट होता है, यथा-एक गुलिका (विक्रा) एकाक मेँ निक्षित एक कहलाती है, दशांक में निश्षिप्त दश, शतांक में निक्षिप्त হান, অন্লাঁজ মী অনল कहलाती हैं। [५४] ४. भदंत बुछुदेव का पक्ष प्रत्योत्यथात्व है | अष्वे अपेक्षावश व्यवस्थित होते हैं । धमं श्रष्व मे प्रवतंमान हो श्रपे्षावश संजञान्तर ग्रहण करता है, अर्थात्‌ यह पूव॑ श्रौर ऊपर की ग्रपेक्षावश भतीत, अनागत, वतंमान कहलाता है। यथा--एक ही ज्जी दुहिता भी है, माता भी है। ` इस प्रकार चारों वादी सर्वास्तिवाद का निरूपण करते हैं।* किन्तु यह्‌ प्रन्य लक्षणों से श्रवियुक्त नहीं होता, क्योंकि उस विकल्प में एक श्रनागत धर्म पश्चात्‌ वर्तमान झौर भ्रतोत भ्रध्व का वही धर्म नहीं होगा । कै १. शुआन चाइ के दो टीकाकारों का मतभेद है। फा-पाप्नो (?४-००४७) के श्रतुसार प्रनागत की व्यवस्था प्रतीत श्रीर वर्तमान की श्रपेक्षा कर (श्रपक्ष्य) होती है । श्रतीत वर्तमान झौर अनागत की अपेक्षा कर, वर्तमान अतीत झौर भ्रनागत की श्रपेक्षा कर व्यवस्थित होता है। यह संवभद्र का मत है। दूसरे टीकाकार के अतुसार पूर्व की श्रपेक्षा कर प्रनागत, श्रपर फी अपेक्षा कर अतीत श्रोर दोनों को भ्रपेक्षा कर वर्तमान व्यवस्थित होता है ? यह विभाषा, ७७,२ का नय है। २, विभाषा, ७७, १--सर्वास्तिवादियों के चार श्राचार्य हैं जो श्रध्वत्रय के प्रस्यधात्व को ध्यवस्यित करते हैं'*'! बसुमित्र कहते हैं कि उनका भ्रन्यथात्व श्रवस्था भेद से होता है' '२. बुद्धवेव कहते हैं कि उनका श्रन्ययात्व श्रपेक्षावश है'*'३, ^ भावान्यथिक कहते है कि जब धर्म श्रध्व बदलते है तब उनका ग्रन्थथार्व भावतः होता है, द्रव्यतः नहीं'* *** ५ अनागत से वर्तमान में प्रतिपद्यमान होकर धमं यद्यपि श्रनागत भाव का प्रतिक्ञाम्‌ करता है तथापि वह स्वद्रव्यक्रान त्याग करता है न प्रतिलाभ'*****; ४. लक्षणान्यथिक, एक व्यावहारिक निकाय का कहना है कि तीन अध्व शब्दमात्रं ह, उनका द्रव्य नहीं है । लोकोत्तरवादी धर्मवश अध्य की व्यवस्था करते हैं; श्रतः जो लोकिक है उसका प्रापेक्षिक श्रल्तित्व है, जो लोकोत्तर है कह द्रव्यसत्‌ है, सौत्रान्तिक निकाय) यहाँ साधिक निकाय के मत से श्रतीत श्रौर ग्रनागत नहीं है, वर्तमान है।




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